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Category Archives: यह है बुरा

सरकारी फाइल और मुआवजे का मरहम

अपने देश में आतंकवाद तो स्थायी मेहमान बन चुका है, लेकिन इसके शिकार हुए लोगों का मुआवजा आज भी राजनेताओं और अधिकारियों की लालफीताशाही के बीच झूलता नजर आता है। यही कारण है कि आतंकियों की गोलियों ने मरने वालों के साथ भले कोई भेद न किया हो, लेकिन मृतकों के परिजनों को मिलने वाले सरकारी मुआवजे की राशियों में यह भेद साफ नजर आता है।

मुंबई पर हुए हमले में कुल 179 लोग मारे गए थे। इनमें जो लोग सीएसटी [वीटी] रेलवे स्टेशन के अंदर मारे गए थे, उनके परिजनों को करीब 22 लाख रुपये मुआवजा मिलना निर्धारित हुआ था। लेकिन जो लोग स्टेशन के ठीक बाहर मरे थे, उनके लिए यह राशि घटकर सिर्फ आठ लाख रुपये रह गई। यहां तक कि इस घटना में मारे गए हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय सालस्कर जैसे अधिकारियों सहित अन्य सुरक्षाकर्मियों के परिजन भी दुर्भाग्यशाली ही साबित हुए। उन्हें रेल मंत्रालय एवं रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल से तो कुछ मिलना ही नहीं था, लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने भी उनके साथ कंजूसी ही दिखाई गई। पेट्रोलियम मंत्रालय द्वारा शहीदों के परिवारों को पेट्रोल पंप देने की घोषणा भी अब तक थोथी ही नजर आ रही है।

मुआवजे का खेल

आतंकी हमले के तुरंत बाद रेलमंत्री ने प्रत्येक मृतक के परिवार के लिए 10 लाख रुपये मुआवजा घोषित किया था। रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल की ओर से मिलने वाले चार लाख रुपये इससे अलग थे। राज्य सरकार ने भी सभी मृतकों के लिए इस बार पांच-पांच लाख रुपये का मुआवजा घोषित किया था। इसके अतिरिक्त उड़ीसा में चर्चो पर हुए हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने आतंकवाद एवं सांप्रदायिक हिंसा में मारे गए लोगों के लिए तीन लाख रुपये की सहायता योजना शुरू की थी। इस प्रकार उक्त सभी स्त्रोतों को मिलाकर प्रत्येक सीएसटी रेलवे स्टेशन परिसर में मारे गए प्रत्येक मृतक के परिवार को कम से कम 22 लाख रुपये एवं सीएसटी परिसर से बाहर मारे गए लोगों के परिवारों को आठ लाख रुपये मुआवजा मिलना तय था। इसमें प्रधानमंत्री राहत कोष से मिलने वाली सहायता राशि शामिल नहीं है, जिसकी घोषणा हमले के दूसरे दिन ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुंबई आकर की थी।

कंजूस राज्य सरकार

आतंकियों के हमले में मारे गए पुलिसकर्मियों के लिए राज्य सरकार ने उदारतापूर्वक 25 लाख रुपये नकद मुआवजे की घोषणा कर दी थी। लेकिन एक दिसंबर, 2008 को जारी शासनादेश से सरकार की कंजूसी उजागर हो जाती है। जिसके अनुसार उक्त राशि मिलने के बाद किसी पुलिसकर्मी की आनड्यूटी मृत्यु पर उसे गृह विभाग से मिलने वाले 13 लाख रुपये दिया जाना उचित नहीं होगा। इस प्रकार आतंकवाद की एक ही घटना में रेलवे स्टेशन के अंदर मारे गए आमजन को 22 लाख रुपये की तुलना में स्टेशन के बाहर आतंकियों की गोली से शहीद हुए पुलिसकर्मियों के परिजनों के हिस्से में महज 12 लाख रुपये ही आए।

पीएमओ का हाल

सबसे हास्यास्पद स्थिति तो सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री कार्यालय की है। 27 नवंबर, 2008 को प्रधानमंत्री द्वारा घोषित विशेष राहत राशि में घायलों एवं मृतकों को उनकी परिस्थिति के अनुसार अधिकतम दो लाख रुपये तक प्राप्त होने थे। मृतकों एवं घायलों को मिलाकर कुल 403 लोगों को यह लाभ मिलना था। आज तक सिर्फ 30 प्रतिशत लोगों को ही प्रधानमंत्री राहत कोष के चेक प्राप्त हो सके हैं। 79 के तो विवरण तक अभी राज्य सरकार ने प्रधानमंत्री कार्यालय को नहीं भेजे हैं। इसी प्रकार केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से इस प्रकार की घटनाओं में मिलने वाली तीन लाख रुपये की राशि भी अभी 100 से कम लोगों को ही मिल सकी है।

नहीं मिले पेट्रोल पंप

पेट्रोलियम मंत्रालय की ओर से शहीदों के परिजनों को पेट्रोल पंप देने की घोषणा भी अब तक हवाई ही साबित हुई है। आधे से ज्यादा शहीदों को तो पेट्रोल पंप का आबंटन हुआ ही नहीं है। जिनके नाम से पेट्रोल पंप आबंटित हुए भी हैं, उनका आबंटन भी कागजी ही है। क्योंकि उन्हें पेट्रोल पंप के बजाय पेट्रोलियम कंपनी से प्रतिमाह 25 हजार रुपये नकद दिलवाने की व्यवस्था मात्र की गई है। यह भी कब तक जारी रहेगी, कुछ स्पष्ट नहीं है। ऐसे हवाई पेट्रोल पंपों के लाभार्थियों में हेमंत करकरे एवं अशोक काम्टे जैसे हाई प्रोफाइल शहीदों के परिवार भी शामिल हैं।

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सच्चा प्यार चाहिए या नानवेज जोक….. ड़ाल करें …..

मैं हूं एक प्यारी सी कुंवारी लड़की। आप हमसे किसी भी तरह की बात कर सकते हैं। चाहे वह..। क्या आपको चाहिए सच्चा प्यार? तो काल कीजिए .. नंबर पर। दस रुपये प्रति मिनट की दर से होगी यह काल। क्या आप बोर हो रहे हैं तो फिर ‘जोक’ है न आपके लिए। अरे! ‘नानवेज जोक’ भी है भाई।

मोबाइल कंपनियों का यह खेल आजकल जबर्दस्त तरीके से लोगों को परेशान किये है। पहले, लगातार एक नंबर से फोन आते थे। लोगों ने उसे पहचान लिया था। काल आते ही उस नंबर को उठाना ही बंद कर दिया। पर अब तो मोबाइल कंपनियों के काल सेंटर से नंबर बदल-बदल कर फोन आ रहे हैं।

दिन भर में औसतन दस से पंद्रह एसएमएस तो इस तरह के आ ही जाते हैं। कहने को तो इस पर पाबंदी है पर देश में इसकी कोई सीधी व्यवस्था नहीं कि आप इस तरह के काल की शिकायत संबंधित कंपनी के खिलाफ कर सकें या फिर इस तरह के काल आपके मोबाइल पर न आयें। समस्या इतनी बड़ी है कि हर घर का औसतन तीन से चार आदमी इस समस्या से परेशान है। मेरा ख़ुद का नम्बर NATIONAL DO NOT DISTURB REGISTRY में ragistar किया हुआ है पर फ़िर भी कॉल आ रही है !

मोबाइल कंपनियों का हाल यह है कि अब समाज के संस्कार पर भी चोट करना शुरू कर दिया है। जब काल सेंटर से संबंधित मोबाइल कंपनी द्वारा ग्रुप एसएमएस अपने ग्राहकों को किया जाता है तो उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं रहती कि वह किस उम्र के लोगों को अपना संदेश भेज रहे हैं और उसे पढ़ेगा कौन?

एक संदेश की बानगी देखिए-आप हिना से दोस्ती करना चाहते हैं तो .. नंबर पर आइए, टीना ..नंबर पर मिलेगी और फिर करीना.. नंबर पर। वृद्ध दादा जी एसएमएस नहीं पढ़ पाते हैं और अपने किशोर पोते को कहते हैं क्या है? जब वह एसएमएस अपने दादा जी को पढ़कर सुनाता है तो क्या स्थिति होगी इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है।

मोबाइल कंपनियों से इस तरह के जो काल आ रहे हैं उनमें कभी-कभी बिल्कुल ही उन्मुक्त अंदाज में लड़कियां कुछ इस तरह से बात करती हैं कि मानो..। दफ्तर जाने और लौटने के समय इस तरह के काल खूब आते हैं। जैसे ही मोबाइल की घंटी बजी कि आप रुक गए। भले ही देर क्यूं न हो जाए। आपने हलो बोला तो आधे सेकेंड के बाद उधर से आवाज आती है।

लवमीटर क्या बला है इस बारे में अब तक शायद ही किसी को पता हो पर मोबाइल कंपनियां आपको यह बता रही हैं कि आप अपने नाम और अपनी चहेती के नाम एसएमएस करें। हम लवमीटर पर उसे जांचकर बता देंगे किस स्तर का है आपका प्यार?..आप दिखना चाहते हैं स्लिम एंड ट्रिम तो फिर अपना ब्लड ग्रुप हमें भेजिए हम बताएंगे आपको आपके ब्लड ग्रुप के हिसाब से वह आहार जो आपको स्लिम बना देगा।

प्यार, इश्क और नानवेज जोक के लिए निमंत्रण के साथ-साथ अब आपकी गाय आपके पड़ोसी की गाय से अधिक दूध कैसे दे इस बात की गारंटी के लिए भी एसएमएस करने को आमंत्रित किया जा रहा है !!

 

टी आर पी की दौड़ में हारे क्विज शो: सिद्धार्थ बासु


एक ऐसा समय था जब रविवार के दिन बच्चे टेलीविजन पर अपने क्विज शो का बेसब्री से इंतजार करते थे लेकिन अब ऐसा नहीं होता। विभिन्न चैनलों के बीच चल रहा टीआरपी युद्ध और दर्शकों की गीत, नृत्य और रियलिटी शो की मांग ने भारतीय टेलीविजन के पर्दे से ज्ञान-आधारित कार्यक्रमों को गायब कर दिया है। अब अभिभावक शिकायत कर रहे हैं।

दो किशोर बच्चों की मां संगीता अग्रवाल कहती हैं, पहले सास-बहु के धारावाहिक चलते थे। अब ग्रामीण परिवेश पर आधारित शो या बिग बॉस जैसे रियलिटी शो चल रहे हैं। मैं अपने बच्चों को क्या देखने दूं।

अग्रवाल कहती हैं कि पहले वह प्रत्येक रविवार को बॉर्नवीटा क्विज कांटेस्ट का इंतजार करती थीं लेकिन अब हिंसात्मक और संवेदनहीन शो उन्हें छोटे पर्दे से दूर रखते हैं।

भारत में क्विज व खेलों से संबंधित रियलिटी कार्यक्रमों के प्रस्तोताओं में से एक सिद्धार्थ बासु कहते हैं कि क्विज शो प्रसारित न होने का सबसे सामान्य कारण टीआरपी की दौड़ है।

बासु ने कहा, ज्ञान-आधारित शो और अंग्रेजी भाषा के कार्यक्रम मुश्किल से ही टीआरपी की सूची में दिखते हैं। इसलिए जब तक एक क्विज शो का प्रसारकों या विज्ञापनदाताओं के साथ गठबंधन नहीं होता तब तक ये शो विलुप्त प्रजाति के कार्यक्रम बने रहेंगे। बॉर्नवीटा क्विज कांटेस्ट, क्विज टाइम, स्पैक्ट्रम, द इंडिया क्विज, मास्टरमाइंड इंडिया, यूनीवर्सिटी चैलेंज, कौन बनेगा करोड़पति और इंडियाज चाइल्ड जीनियस जैसे कार्यक्रम पहले टेलीविजन पर प्रसारित होते थे लेकिन अब इस तरह के कार्यक्रम कहीं भी दिखाई नहीं देते।

बासु सलाह देते हैं, यदि बच्चों को ज्ञान के क्षेत्र में मूल्यों की जरूरत है, तो मैं कहूंगा कि वह टेलीविजन कम देखें या चुनिंदा कार्यक्रम ही देखें।

 

राजनीतिक अवसरवादिता – अब बस भी करो !!

उत्तर प्रदेश के दो बड़े नेता मुलायम सिंह और कल्याण सिंह जिस तरह यकायक एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो गए उससे उनकी राजनीतिक अवसरवादिता का ही पता चलता है। अब इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि मुलायम सिंह ने जब यह समझा कि कल्याण सिंह उनके वोट बढ़ाने का काम कर सकते हैं तब उन्होंने उन्हें गले लगा लिया और जब यह समझ आया कि उनका साथ महंगा पड़ा तो दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका। कल्याण सिंह से तौबा करने के संदर्भ में मुलायम सिंह की इस सफाई का कोई मूल्य नहीं कि वह तो उनकी पार्टी में थे ही नहीं और उन्हें आगरा अधिवेशन का निमंत्रण पत्र गलती से चला गया था। एक तो कल्याण सिंह के स्पष्टीकरण से यह साफ हो गया कि मुलायम सिंह की यह सफाई सही नहीं और दूसरे यह किसी से छिपा नहीं कि आगरा अधिवेशन में सपा ने उन्हें किस तरह हाथोंहाथ लिया था। कल्याण सिंह ने भले ही सपा की विधिवत सदस्यता ग्रहण न की हो, लेकिन वह पार्टी के एक नेता की तरह ही मुलायम सिंह के पक्ष में खड़े रहे और उनकी ही तरह भाजपा को नष्ट करने का संकल्प लेते रहे। यह बात और है कि सपा को उनका साथ रास नहीं आया और पिछड़े वर्गो का एकजुट होना तो दूर रहा, मुलायम सिंह के परंपरागत वोट बैंक में भी सेंध लग गई। यह आश्चर्यजनक है कि सपा नेताओं ने यह समझने से इनकार किया कि कल्याण सिंह से नजदीकी मुस्लिम वोट बैंक की नाराजगी का कारण बन सकती है।

इसमें संदेह है कि सपा के कल्याण सिंह से हाथ जोड़ने के बाद मुस्लिम वोट बैंक फिर से उसकी ओर लौट आएगा। इसमें भी संदेह है कि एक तरह से सपा से निकाल बाहर किए गए कल्याण सिंह का भाजपा में स्वागत किया जाएगा। जिस तरह मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को गले लगाकर अपनी विश्वसनीयता को क्षति पहुंचाई उसी तरह कल्याण सिंह भी अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। फिलहाल यह कहना कठिन है कि उनकी भाजपा में पुन: वापसी हो पाएगी या नहीं, लेकिन यह लगभग तय है कि उनकी वापसी का भाजपा को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। कल्याण सिंह भले ही प्रायश्चित के रूप में भाजपा को मजबूत करने की बात कह रहे हों, लेकिन आम जनता यह कैसे भूल सकती है कि वह कल तक भाजपा को मिटा देने का संकल्प व्यक्त कर रहे थे? सवाल यह भी है कि आखिर उन्हें प्रायश्चित के कितने मौके किए जाएंगे? राजनीतिक स्वार्थो के लिए किसी भी हद तक जाने की एक सीमा होती है। यह निराशाजनक है कि कद्दावर नेता होते हुए भी मुलायम सिंह और कल्याण सिंह, दोनों ने इस सीमा का उल्लंघन करने में संकोच नहीं किया। वोट बैंक के रूप में ही सही आम जनता इतना तो समझती ही है कि राजनेता किस तरह उसके साथ छल करते हैं। वोट बैंक निश्चित ही बैंक खातों में जमा धनराशि नहीं कि उसे मनचाहे तरीके से दूसरे के खाते में स्थानांतरित किया जा सके। मुलायम सिंह और कल्याण सिंह का हश्र यह बता रहा है कि वोटों के लिए कुछ भी कर गुजरने और यहां तक कि आम जनता की भावनाओं से खेलने के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं।

 

कौन लिख रहा है इन नौनिहालों की तकदीर ??

अगर वास्तव में बच्चे किसी देश का भविष्य है तो भारत का भविष्य अंधकारमय है। भविष्य का भारत अनपढ़, दुर्बल और लाचार है। कोई भी इनका अपहरण, अंग-भंग, यौन शोषण कर सकता है और बंधुआ बना सकता है।

हर साल बच्चों के प्रिय चाचा जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। बच्चों के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जाते है। बड़ी-बड़ी बातें की जाती है, लेकिन साल-दर-साल उनकी स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।

भारत में बाल-मजदूरी पर प्रतिबंध लगे 23 साल हो गए है, लेकिन विश्व में सबसे ज्यादा बाल मजदूर यहीं हैं। इनकी संख्या करीब छह करोड़ है। खदानों, कारखानों, चाय बागानों, होटलों, ढाबों, दुकानों आदि हर जगह इन्हें कमरतोड़ मेहनत करते हुए देखा जा सकता है। कच्ची उम्र में काम के बोझ ने इनके चेहरे से मासूमियत नोंच ली है।

इनमें से अधिकतर बच्चे शिक्षा से दूर खतरनाक और विपरीत स्थितियों में काम कर रहे है। उन्हें हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता है। इनमें से कई तो मानसिक बीमारियों के भी शिकार हो जाते हैं। बचपन खो करके भी इन्हे ढग से मजदूरी नहीं मिलती।

भारत में अशिक्षा, बेरोजगारी और असंतुलित विकास के कारण बच्चों से उनका बचपन छीनकर काम की भट्ठी में झोंक दिया जाता है। इसलिए जब तक इन समस्याओं का हल नहीं किया जाएगा, तब तक बाल श्रम को रोकना असंभव है। ऐसा प्रावधान होना चाहिए कि सभी बच्चों को मुफ्त और बेहतर शिक्षा मिल सके। हर परिवार को कम से कम रोजगार, भोजन और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हों। साथ ही बाल-मजदूरी से जुड़े सभी कानून और सामाजिक-कल्याण की योजनाएं कारगर ढंग से लागू हों।

देश में बच्चों के स्वास्थ्य की स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। ब्रिटेन की एक संस्था के सर्वे के अनुसार पूरी दुनिया में जितने कुपोषित बच्चे हैं, उनकी एक तिहाई संख्या भारत में है। यहा तीन साल तक के कम से कम 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इसके अलावा प्रतिदिन औसतन 6,000 बच्चों की मौत होती है। इनमें 2,000 से लेकर 3,000 बच्चों की मौत कुपोषण के कारण होती है।

भारत में बच्चों का गायब होना भी एक बड़ी समस्या है। इनमें से अधिकतर बच्चों को संगठित गिरोहों द्वारा चुराया जाता है। ये गिरोह इन मासूमों से भीख मंगवाते हैं। अब तो मासूम बच्चों से छोटे-मोटे अपराध भी कराए जाने लगे है। पिछले एक साल में दिल्ली मे दो हजार से ज्यादा बच्चे गायब हुए। इन्हें कभी तलाश ही नहीं किया गया, क्योंकि ये सभी बच्चे बेहद गरीब घरों के थे।

यह स्थिति तो देश की राजधानी दिल्ली की है। पूरे देश की क्या स्थिति होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अगर गायब होने वाला बच्चा समृद्ध परिवार का होता है तो शासन और प्रशासन में ऊपर से लेकर नीचे तक हड़कंप मच जाता है।

यदि बच्चा गरीब घर से ताल्लुक रखता है तो पुलिस रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती। पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई थी कि वह सिर्फ अमीरों के बच्चों को तलाशने में तत्परता दिखाती है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 80 प्रतिशत पुलिस वाले गुमशुदा बच्चों की तलाश में रुचि नहीं लेते। भारत में हर साल लगभग 45 हजार बच्चे गायब होते हैं और इनमें से 11 हजार बच्चे कभी नहीं मिलते।

संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव में 2007 मे भारत में बाल अधिकार संरक्षण आयोग गठित किया गया था। आयोग ने गुमशुदा बच्चों के मामले मे राच्य सरकारों को कई सुझाव और निर्देश दिए थे। इनमें से एक गुम होने वाले हर बच्चे की एफआईआर तुरंत दर्ज किए जाने के संदर्भ में था, लेकिन सच्चाई सबके सामने है।

बाल विवाह एक और बड़ी समस्या है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जिन लड़कियों की बचपन में शादी कर दी जाती है, उनमें एक तिहाई से भी ज्यादा भारत से हैं। सालभर में लाखों बच्चिया इसके लिए अभिशप्त है। इन्हें भीषण शारीरिक और मानसिक यातना झेलनी पड़ती है।

बाल विवाह पर प्रतिबंध के बावजूद रीति-रिवाज, पिछड़ेपन ओर रूढि़वादिता के कारण अब भी देश के कई हिस्सों में लड़कियों को विकास का अवसर दिए बिना अंधे कुंए में धकेला जा रहा है। छोटी उम्र में विवाह से कई बार लड़कियों को बाल वैधव्य का सामना करना पड़ता है, जिससे उनका जीवन मुसीबतों से घिर जाता है।

इसके अलावा बाल विवाह से कई बार वर-वधू के शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक विकास में विपरीत असर पड़ता है। बाल विवाह के कारण लड़कियों की पढ़ाई रुक जाती है। कम पढ़ी-लिखी महिला अंधविश्वासों और रूढि़यों से घिर जाती है। ऐसी पीढ़ी से देश व समाज हित की क्या उम्मीद की जा सकती है?

इससे दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि करीब 53 प्रतिशत बच्चे यौन शोषण के शिकार हैं। इनमें केवल लड़किया ही नहीं, बल्कि लड़के भी हैं। पाच साल से 12 साल की उम्र के बीच यौन शोषण के शिकार होने वाले बच्चों की संख्या सबसे अधिक है।

कुल मिलाकर कहा जाए तो बच्चों के मामले में भारत की स्थिति सबसे खराब है। प्रशासनिक अधिकारियों को इस तरह की कोई ट्रेनिंग नहीं दी जाती कि वह बच्चों के प्रति संवेदशनील होकर अपने दायित्व को समझें। बच्चे वोट बैंक नहीं होते इसलिए राजनीतिक पार्टिया दिखावे के लिए भी उनकी चिंता नहीं करतीं। सब बातें छोड़ भी दें तो सरकार बच्चों के लिए बेसिक शिक्षा तक नहीं उपलब्ध करवा पा रही है।

पूरे देश में स्कूलों का अब भी अभाव है। जहा स्कूल है भी, वहा कुव्यवस्था है। कहीं अध्यापकों की कमी है तो कहीं जरूरी सुविधाएं नहीं हैं। 10 सितंबर को दिल्ली के खजूरी खास स्थित राजकीय वरिष्ठ बाल/बालिका विद्यालय में परीक्षा से पूर्व मची भगदड़ में पाच छात्रों की मौत हो गई थी, जबकि 32 छात्राएं घायल हुई थीं। इसके पीछे मुख्य वजह कुव्यवस्था थी। यह स्थिति देश की राजधानी की है। इससे पता चलता है कि हम देश के भविष्य के प्रति संवेदनशील और जिम्मेदार है।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सदस्य संध्या बजाज का कहना है कि गुमशुदा बच्चों के अधिकाश मामलों में रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती। गुम होने वाले ज्यादातर बच्चे शोषण का शिकार होते है। इसलिए हर गुमशुदा बच्चे की रिपोर्ट जरूर दर्ज की जानी चाहिए। बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिलने से उनकी जिदंगी और बेहतर बन जाएगी।

हम उनसे सबक क्यों नहीं लेते

कई देशों में बच्चों के लिए अलग से लोकपाल नियुक्त हैं। सबसे पहले नार्वे ने 1981 में बाल अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक अधिकारों से युक्त लोकपाल की नियुक्ति की। बाद में आस्ट्रेलिया, कोस्टारिका, स्वीडन [1993], स्पेन [1996], फिनलैंड आदि देशों ने भी बच्चों के लिए लोकपाल की नियुक्ति की।

लोकपाल का कर्तव्य है बाल अधिकार आयोग के अनुसार बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देना और उनके हितों का समर्थन करना। यही नहीं, निजी और सार्वजनिक प्राधिकारियों में बाल अधिकारों के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करना भी उनके दायित्वों में है। कुछ देशों में तो लोकपाल सार्वजनिक विमर्शो में भाग लेकर जनता की अभिरुचि बाल अधिकारों के प्रति बढ़ाते हैं और जनता व नीति निर्धारकों के रवैये को प्रभावित करते हैं।

बच्चों के शोषण एवं बालश्रम की समस्याओं के मद्देनजर भारत में भी बच्चों के लिए स्वतंत्र लोकपाल व्यवस्था गठित करने की मांग अक्सर की जाती रही है, लेकिन सवाल यह है कि इतने संवैधानिक उपबंधों, नियमों-कानूनों, मंत्रालयों और आयोगों के बावजूद अगर बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है तो समाज भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता।

कल हर बच्चा अपनी पुरानी पीढ़ी से मांगेगा हिसाब

हर साल की तरह फिर से 14 नवंबर यानी बाल दिवस आ गया। हर साल की तरह बच्चों के मसीहा चाचा नेहरु को याद करने का दिन। बच्चों को देश का भविष्य और कर्णधार बताने, उनकी तरक्की और शिक्षा के नए वायदे करने, स्कूली बच्चों के बीच कार्यक्रम करके नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और शिक्षा-व्यापारियों के फोटो खिंचवाने और अखबार में खबर छपवाने का दिन।

आखिर कब तक हमारा देश अपने आपको और उन मासूम बच्चों को धोखा देता रहेगा, जिन्हें अब तक वह भरपेट रोटी और आजादी जैसी बुनियादी चीजें भी मुहैया नहीं करा सका। शिक्षा, स्वास्थ्य, बचपन का स्वाभिमान और भविष्य की गारंटी तो दूर की बात है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में पांच वर्ष से कम आयु के 47 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। हाल ही में यूनीसेफ ने खुलासा किया है था कि दुनिया भर में पाच साल से कम उम्र में मौत के मुंह में समा जाने वाले लगभग 97 लाख बच्चों में से 21 लाख भारत के होते हैं। कम वजन के पैदा होने वाले साढ़े पंद्रह करोड़ शिशुओं में से साढ़े पाच करोड़ हमारे देश के होते हैं।

पाच से छह करोड़ बच्चे बाल मजदूरी के शिकार हैं। लाखों बच्चे जानवरों से भी कम कीमत में एक से दूसरी जगह खरीदे और बेचे जाते हैं। 40-50 हजार बच्चे मोबाइल फोन, बटुए, खिलौने या किसी सामान की तरह हर साल गायब कर दिए जाते हैं। अकेले देश की राजधानी दिल्ली में हर रोज औसतन छह बच्चे गायब किए जाते हैं। सड़कों पर जबरिया भीख मंगवाने के लिए अंधा बनाकर या हाथ-पाव काटने की कहानी स्लमडाग मिलियनायर की कल्पना नहीं, बल्कि रोजमर्रा की असलियत है।

शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो, जब किसी मासूम बच्ची से बलात्कार करने या उसकी हत्या कर देने की घटनाएं अखबारों में देखने को न मिलती हों। घरेलू बाल मजदूरी रोकने के लिए दो साल पहले एक कठोर कानूनी प्रावधान लाया गया था, लेकिन कभी किसी अदाकारा के घर तो कभी सरकारी अधिकारी और तथाकथित मध्यवर्गीय शिक्षित व्यवसायी के घर घरेलू बाल नौकरानियों को गर्म लोहे से दाग देने या बुरी तरह मारपीट करने की घिनौनी वारदातें आए दिन सामने आती हैं। मीडिया में थोड़ा बहुत शोर शराबा हो जाता है। अधिकारियों और स्वयंसेवी संगठनों के नेताओं के बाइट किसी चैनल में एक दो दिन चल जाते हैं और फिर वही ढाक के तीन पात।

बाल दिवस की रस्म अदायगी करने से पहले हमें अपने अंदर झाकना चाहिए। निजी सार्वजनिक और राजनैतिक ईमानदारी की भी जाच पड़ताल करनी चाहिए। अपनी खुद की संतानों के भविष्य को संवारने के लिए जो लोग घूसखोरी और भ्रष्टाचार तक में लिप्त पाए जाते हैं, वे दूसरों के बच्चों को गुलाम बनाने से नहीं कतराते। अपने बच्चों को महंगे से महंगे अंग्रेजी स्कूलों में दाखिल कराने के लिए जमीन-आसमान एक कर देते हैं, लेकिन किसी चाय के ढाबे पर बेशर्मी से बच्चे के हाथ की चाय पीते हुए या जूते पालिश कराते हुए उन्हें यह एहसास तक नहीं होता कि भारत का भविष्य सिर्फ उनके बाल-गोपाल ही नहीं, दूसरे बच्चे भी हैं।

सार्वजनिक जीवन में दोहरे मानदंड की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि नेता-अधिकारी और अधिकारों की बात करने वाले बुद्धिजीवी कुतर्को का अंबार लगा देते हैं। मसलन, गरीब का बच्चा काम नहीं करेगा तो भूखा मर जाएगा या लड़की वेश्यावृत्ति करने लगेगी, इसलिए बेहतर है कि वह बाल मजदूरी करे। कुछ लोग कहते हैं कि देश के पास इतने संसाधन कहा कि हर बच्चे का गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई मुहैया कराई जा सके। यदि गरीब बच्चों को मंहगे अंग्रेजी स्कूलों में जबरन भर्ती कराया जाएगा तो वहा शिक्षा का स्तर खराब हो जाएगा आदि।

आखिर हम कब तक बच्चों के वर्तामन और भविष्य के साथ पाखंड करते रहेंगे? कब तक उनको धोखा देते रहेंगे? यह सच है कि अधिकाश बच्चे आज अपने आकाओं से जवाब मागने का माद्दा नहीं रखते, लेकिन आने वाले कल की असलियत आज से एकदम अलग होगी यह तय समझिए। सदियों से चले आ रहे पाखंड और बचपन विरोधी परंपराओं को कुछ बच्चों ने चुनौती देना शुरू कर दिया है। यह सैलाब रुकने वाला नहीं हैं। कल हर बच्चा अपनी पुरानी पीढ़ी से हिसाब जरूर मागेगा, तब हम उन्हें क्या जवाब देंगे?

– अनुराग [लेखक सुपरिचित सामाजिक कार्यकर्ता हैं]

 

विश्व में कहां ठहरते हैं हमारे विश्वविद्यालय

पिछले सप्ताह जब से ‘द टाइम्स-क्यूएस’ की दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग जारी हुई है, देश में अपने विश्वविद्यालयों की दशा को लेकर हंगामा मचा हुआ है। वजह यह कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पहले 10 या 50 या 100 या फिर 150 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का कोई विश्वविद्यालय जगह नही बना पाया है।
यही नहीं, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में 163वें स्थान पर आईआईटी मुंबई और 181वें स्थान पर आईआईटी दिल्ली को जगह मिल सकी है, जबकि लोकप्रिय और वास्तविक अर्थो में आईआईटी को विश्वविद्यालय नहीं माना जाता है।
यह सचमुच चिंता और अफसोस की बात है कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में दो आईआईटी को छोड़कर देश का कोई विश्वविद्यालय जगह बना पाने में कामयाब नहीं हुआ है। इससे देश में उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है, लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है।
ऐसा नहीं है कि यह सच्चाई सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग जारी होने के बाद पहली बार सामने आई है। यह एक तथ्य है कि पिछले कई वर्षो से जारी हो रही इस वैश्विक रैंकिंग में भारत के विश्वविद्यालय अपनी जगह बना पाने में लगातार नाकामयाब रहे हैं।
सवाल है कि इस वैश्विक रैंकिंग को कितना महत्व दिया जाए? यह भी एक तथ्य है कि ‘द टाइम्स-क्यूएस’ की विश्वविद्यालयों की सालाना वैश्विक रैकिंग रिपोर्ट और ऐसी अन्य कई रिपोर्टो की प्रविधि और चयन प्रक्रिया पर सवाल उठते रहे हैं। इस रैकिंग में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों के प्रति झुकाव और आत्मगत मूल्याकन की छाप को साफ देखा जा सकता है, लेकिन इन सबके बावजूद दुनिया भर के शैक्षणिक समुदाय में इस वैश्विक विश्वविद्यालय रैंकिंग की मान्यता और स्वीकार्यता बढ़ती ही जा रही है। उसकी अपनी ही एक करेंसी हो गई है।
दरअसल, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले दो दशकों में उच्च शिक्षा का जो वैश्विक बाजार बना है, उसके लिए विश्वविद्यालयों की इस तरह की रैंकिंग एक अनिवार्य शर्त है। यह रैंकिंग वैश्विक शिक्षा बाजार के उन उपभोक्ताओं के लिए है, जो बेहतर अवसरों के लिए विश्वविद्यालय चुनते हुए इस तरह की रैंकिंग को ध्यान में रखते हैं।
निश्चय ही, इस तरह की रैंकिंग से सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को न सिर्फ संसाधन जुटाने में आसानी हो जाती है, बल्कि वे दुनिया भर से बेहतर छात्रों और अध्यापकों को भी आकर्षित करने में कामयाब होते हैं। इस अर्थ में, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में आईआईटी को छोड़कर एक भी भारतीय विश्वविद्यालय के न होने से साफ है कि भारत उच्च शिक्षा के वैश्विक बाजार में अभी भी आपूर्तिकर्ता नहीं, बल्कि उपभोक्ता ही बना हुआ है।
आश्चर्य नहीं कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद अभी भी देश से हर साल लाखों छात्र उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया तक के विश्वविद्यालयों की ओर रुख कर रहे हैं। यही नहीं, ‘ब्रेन ड्रेन’ रोकने और ‘ब्रेन गेन’ के दावों के बीच अब भी सैकड़ों प्रतिभाशाली शिक्षक और शोधकर्ता विदेशों का रुख कर रहे हैं।
इस मायने में वैश्विक विश्वविद्यालयों की यह रैंकिंग उच्च शिक्षा के कर्ता-धर्ताओं को न सिर्फ वास्तविकता का सामना करने का एक मौका देती है, बल्कि एक तरह से चेतावनी की घटी है। वह इसलिए कि दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं के तहत सेवा क्षेत्र को व्यापार के लिए खोलने की जो बातचीत चल रही है, उसमें भारत अपने उच्च शिक्षा क्षेत्र को खोलने के लिए तत्पर दिख रहा है।
इस तत्परता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में बुलाने के लिए कुछ ज्यादा ही उत्साहित दिख रहे हैं।
लेकिन सवाल यह है कि जब भारत और उसके विश्वविद्यालय वैश्विक शिक्षा बाजार में कहीं नहीं हैं तो उच्च शिक्षा का घरेलू बाजार विदेशी शिक्षा सेवा प्रदाताओं या विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए खोलने के परिणामों के बारे में क्या यूपीए सरकार ने विचार कर लिया है?
क्या ऐसे समय में, जब भारतीय विश्वविद्यालय विकास और गुणवत्ता के मामले में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों से काफी पीछे हैं, उस समय विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजे खोलने का अर्थ उन्हें एक असमान प्रतियोगिता में धकेलना नहीं होगा? क्या इससे देसी विश्वविद्यालयों के विकास पर असर नहीं पड़ेगा?
निश्चय ही इन सवालों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, लेकिन ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार उच्च शिक्षा में बुनियादी सुधार और बेहतरी के लिए देसी विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता बढ़ाने के वास्ते उन्हें जरूरी संसाधन और संरक्षण मुहैया कराने के बजाय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का जिम्मा विदेशी विश्वविद्यालयों को सौंपकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है।
हालाकि कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा में सुधार के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि वे उच्च शिक्षा क्षेत्र में बुनियादी सुधार के बजाय जहां-तहां पैबंद लगाने की कोशिश कर रहे हैं। हकीकत यह है कि यूपीए सरकार को उच्च शिक्षा में पैबंद लगाने और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और निजी क्षेत्र को बढ़ाने जैसे पिटे-पिटाए फार्मूलों को फिर से आजमाने के बजाय उन बुनियादी सवालों और समस्याओं से निपटने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए, जिनकेकारण उच्च शिक्षा एक शैक्षणिक जड़ता से जूझ रही है।
आज वास्तव में जरूरत यह है कि इस शैक्षणिक जड़ता को तोड़ने के लिए उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक पुनर्जागरण के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जाए। इसके लिए विश्वविद्यालयों के व्यापक जनतात्रिक पुनर्गठन के साथ-साथ उन्हें वास्तविक स्वायत्तता और शैक्षणिक स्वतंत्रता उपलब्ध कराना जरूरी है।
असल में, आज देश में उच्च शिक्षा के सामने तीन बुनियादी चुनौतिया हैं- उच्च शिक्षा के विस्तार, उसमें देश के सभी वर्गो के समावेश और उसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने की। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि सरकार उच्च शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन और वित्तीय मदद मुहैया कराए, लेकिन अफसोस की बात यह है कि आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद 90 के दशक में उच्च शिक्षा के बजट में लगातार कटौती हुई, जिसका नतीजा यह हुआ कि अधिकाश विश्वविद्यालयों में न सिर्फ पठन-पाठन पर असर पड़ा, बल्कि वे छोटी-छोटी शैक्षणिक जरूरतों और संसाधनों से भी महरूम हो गए।
एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के विकसित देशों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ब्रिक देशों [ब्राजील, रूस, भारत और चीन] में उच्च शिक्षा में प्रति छात्र सबसे कम व्यय भारत में होता है। आश्चर्य नहीं कि वैश्विक विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में पहले 200 विश्वविद्यालयों की सूची में हमारे पड़ोसी देश चीन के कई विश्वविद्यालयों के नाम हैं, लेकिन भारत के विश्वविद्यालय उस सूची में जगह नहीं बना पाए।
ऊपर से तुर्रा यह कि यूपीए सरकार अब विश्वविद्यालयों को अपने बजट का कम से कम 20 प्रतिशत खुद जुगाड़ने के लिए कह रही है।
यही नहीं, इस समय उच्च शिक्षा पर बजट बढ़ाने और 11वीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा को सबसे अधिक महत्व देने के यूपीए सरकार के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद सच यह है कि सरकार उच्च शिक्षा पर जीडीपी का 0.39 प्रतिशत से भी कम खर्च कर रही है। इसकी तुलना में, चीन उच्च शिक्षा पर इसके तीन गुने से भी अधिक खर्च कर रहा है।
असल में, वैश्विक रैकिंग में जगह न बना पाने से अधिक चिंता की बात यह है कि आजादी के 60 सालों बाद भी उच्च शिक्षा के विस्तार की हालत यह है कि देश में विश्वविद्यालय जाने की उम्र के सिर्फ दस फीसदी छात्र ही कालेज या विश्वविद्यालय तक पहुंच पाते हैं, जबकि विकसित और पश्चिमी देशों में 35 से 50 फीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पहुंचते हैं। आश्चर्य नहीं कि मानव विकास सूचकाक में भी भारत 183 देशों की सूची में 134वें स्थान पर है।
आखिर मानव विकास में फीसड्डी होकर कोई देश सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग में जगह कैसे बना सकता है?
जो हमसे हैं बेहतर
‘द टाइम्स-क्यूएस’ 2009 की इस रैंकिंग में अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी पहले स्थान पर बरकरार है। ब्रिटेन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी एक पायदान चढ़कर दूसरे स्थान पर आ गई है। वहीं, अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी एक पायदान खिसककर तीसरे नंबर पर पहुंच गई है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन को इंपीरियल कॉलेज, लंदन के साथ पाचवें स्थान पर संयुक्त रूप से जगह दी गई है।
रिपोर्ट में ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों की तारीफ कहा गया है कि इस रैंकिंग में ब्रिटेन ने अपना वजन बढ़ाया है, लेकिन इसके बावजूद वह अमेरिका से पीछे है। टाप-10 और टाप-100 में ब्रिटेन के क्रमश: चार और 18 विश्वविद्यालयों ने जगह बनाई है। टाप-100 में एशियाई विश्वविद्यालयों की संख्या 14 से बढ़कर 16 हो गई है। इनमें टोक्यो यूनिवर्सिटी ने इस रैंकिंग में शीर्ष 22वा स्थान हासिल किया है, जबकि हागकाग यूनिवर्सिटी को 24वा स्थान मिला है।
वहां शिक्षण के प्रति समर्पण ज्यादा है
पश्चिमी और यूरोपीय विश्वविद्यालयों का इतिहास भले ही 500-600 वर्ष पुराना हो, लेकिन पश्चिमी शिक्षा जिसे हम बार-बार आदर्श के रूप में देखते हैं, वह बहुत पुरानी नहीं हैं। इसमें समय के साथ बदलाव भी होते रहे हैं। दूसरे, विदेशों में उच्च शिक्षा में शोध को बहुत महत्व दिया जाता है।
ऐसा नहीं है कि विदेशों में लोग अध्यापन को पैसों से नहीं जोड़ते, लेकिन वहां अध्यापकों में शिक्षा के लिए समर्पण हमसे ज्यादा है। सबसे बड़ी बात तो यह भी है कि पश्चिमी देशों में शोधकार्यो को भी बढ़ावा दिया जाता रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन शोध से जुड़ी किसी भी जरूरतों में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रख्यात अर्थशास्त्री जेके मेहता अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष थे। उस समय जो लोग टॉप किया करते थे, उनका चयन विदेशी विश्वविद्यालयों में तदर्थ रूप से पढ़ाने के लिए हो जाया करता था। एक विद्यार्थी जिसका चयन विदेशी विश्वविद्यालय में शिक्षक और आईएएस, दोनों ही जगहों पर हो गया, वह मेहता साहब से सलाह लेने गया कि मैं किसी बतौर कैरियर अपनाऊं?
मेहता साहब ने पूछा- विश्वविद्यालय में तो तुम्हारा चयन स्थाई रूप से हो ही जाएगा। उसके बाद तुम रीडर बनना चाहोगे, और फिर प्रोफेसर। छात्र ने कहा, ‘हां।’ मेहता साहब ने कहा इसका मतलब तुम नौकरी करना चाहते हो शिक्षक नहीं बनना चाहते। जब नौकरी ही करना चाहते हो तो तुम्हारे लिए आईएएस ही ठीक है।
भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रदर्शन में कमी का एक और जो बड़ा कारण है, वह यह कि हमारे यहां का अच्छा छात्र तो विदेश चला जाता है और औसत छात्र यहीं रह जाता है। जबकि हमारे यहां जो विदेशी छात्र आते हैं, वे सामान्य दर्जे के होते हैं। पहले जो अध्यापक होते थे, वे भले ही पीएचडी न हों, लेकिन शोध करने और सीखने के प्रति उनकी रुचि रहती थी। वह शिक्षा और छात्रों के भविष्य के प्रति गंभीर रहते थे, लेकिन अब इन प्रवृत्तियों में गिरावट आई है। इसके पीछे कहीं न कहीं सरकारी उदासीनता और लोगों की व्यक्तिगत स्तर पर मानसिकता में बदलावों को भी जिम्मेवार ठहराया जा सकता है।
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भाई साहब, जब यूपीए सरकार की पालनहार खुद और उनका बेटा तक विदेश में पढ़ा हुआ हो तो क्या फर्क पड़ता है अगर यहाँ का युवा भी विदेश जा कर पढना चाहे ?? हुआ करे ‘ब्रेन ड्रेन’ !! किस को फर्क पड़ता है यहाँ ?! अगर शिक्षा के ऊपर पड़ा कफ़न हटाया गया तो कौन झेलेगा आती हुयी बदबू को ?? चिंता है उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति की जबकि बेसिक शिक्षा का हाल और भी बुरा है !!
कपिल सिब्बल साहब, उच्च शिक्षा तो हमारे युवा तब लेगे ना जब उनके पास बेसिक शिक्षा हो ?? सो कदम कदम चले…. बहुत लम्बी कूदने की ना सोचे !!
वैसे आप मंत्री है …..ज्यादा जानते है …..हम तो सिर्फ़ जनता है जो आप करोगे हमारी भलाई के लिए ही करोगे …..एसा हम मानते है !!

बाकी कोई बात बुरी लगी हो तो अज्ञानी समझ माफ़ करे वह क्या है ना हमे तो उच्च शिक्षा मिली ही नहीं !!

 

आखिर गांधी को क्यों नहीं मिला नोबेल ?

गांधी जी के बहुत से प्रशंसकों को शांति का नोबेल पुरस्कार मिल चुका है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को यह अभी-अभी मिला है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल आज भी यही बना हुआ है कि पांच बार नामांकित किए जाने के बावजूद यह पुरस्कार अहिंसा और शांति की प्रतिमूर्ति महात्मा गांधी को क्यों नहीं मिला ?
हालांकि तीन बार गांधी जी के नाम का चयन किया गया, लेकिन हर बार चयन समितियों ने अलग-अलग कारण बताकर उन्हें यह पुरस्कार नहीं मिलने दिया। चयन समितियों ने गांधी जी को नोबेल न मिलने के कई कारण बताए जैसे कि ‘वह अत्यधिक भारतीय राष्ट्रवादी थे’ और वह ‘बार-बार ईसा [शांति दूत] के रूप में सामने आते थे, लेकिन अचानक से साधारण राजनीतिज्ञ बन जाते थे। एक समिति का विचार था कि ‘गांधी असल राजनीतिज्ञ या अंतरराष्ट्रीय कानून के समर्थक नहीं थे, न ही वह प्राथमिक तौर पर मानवीय सहायता कार्यकर्ता थे तथा न ही अंतरराष्ट्रीय शांति कांग्रेस के आयोजक थे।’
गांधी जी ने विश्व को यह दिखाया कि कि सत्याग्रह के जरिए कुछ भी हासिल किया जा सकता है। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए 1937, 1938, 1939, 1947 और अंत में जनवरी 1948 में शहादत से पहले नामांकित किया गया। नोबेल फाउंडेशन के अनुसार गांधी को 1937 में जब पहली बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया तो चयन समिति के सलाहकार प्रोफेसर जैकब वोर्म मुलर ने उनके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी की। जैकब ने अपनी टिप्पणी में कहा कि नि:संदेह वह [गांधी] अच्छे, आदर्श और तपस्वी व्यक्ति हैं। एक ऐसे व्यक्ति हैं जो सम्मान के योग्य हैं और लोग जिन्हें प्यार करते हैं, लेकिन उनकी नीतियों में कुछ ऐसे मोड़ हैं जिनकी उनके अनुयायी भी मुश्किल से संतोषजनक व्याख्या कर पाते हैं। वह एक स्वतंत्रता सेनानी और एक तानाशाह हैं, एक आदर्शवादी और राष्ट्रवादी। वह बारबार शांति दूत के रूप में उभरकर सामने आते हैं, लेकिन अचानक से एक साधारण राजनीतिज्ञ बन जाते हैं।
वोर्म मुलर ने अपनी टिप्पणी में यह भी कहा कि गांधी जी ‘सुसंगत रूप से शांतिवादी’ नहीं थे और उन्हें यह पता रहा होगा कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ उनके कुछ अहिंसक आंदोलन हिंसा और आतंक में बदल जाएंगे। उन्होंने यह टिप्पणी 1920-1921 में गांधी जी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन के संदर्भ में की जब भीड़ ने चौरीचौरा में एक पुलिस थाने को जला दिया था और कई पुलिसकर्मियों को मार दिया तब दी थी। मुलर ने चयन समिति को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में कहा था कि गांधी अत्यधिक भारतीय राष्ट्रवादी थे। उनके बारे में कहा जा सकता है कि दक्षिण अफ्रीका में उनका संघर्ष सिर्फ भारतीयों की ओर से था, न कि उन अश्वेतों की ओर से जिनकी हालत अत्यंत दयनीय थी। गांधी जी को नोबेल के लिए 1938 और 1939 में भी नामांकित किया गया, लेकिन दूसरी बार उनके नाम का चयन भारत के आजाद होने के बाद 1947 में किया गया।
स्वतंत्रता सेनानी गोविन्द वल्लभ पंत बीजी खेर उन व्यक्तियों में शामिल थे जिन्होंने उन्हें नामांकित किया। उस समय नोबेल समिति के तत्कालीन सलाहकार जेन्स अरुप सीप की रिपोर्ट हालांकि उतनी आलोचनात्मक नहीं थी जितनी कि वोर्म मुलर की थी। हालांकि उस समय समिति के अध्यक्ष गुनर जान ने अपनी डायरी में लिखा कि यह बात सच है कि नामांकित व्यक्तियों में गांधी सबसे बड़ी हस्ती हैं। उनके बारे में बहुत सी अच्छी चीजें कही जा सकती हैं, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि गांधी सिर्फ शांति तपस्वी ही नहीं, वरन सर्वप्रथम और अग्रिम मोर्चे पर वह एक देशभक्त हैं।
जान ने कहा कि इसके अतिरिक्त हमें यह बात भी दिमाग में रखनी चाहिए कि गांधी भोले-भाले नहीं हैं। वह एक दक्ष न्यायविद और वकील हैं। गांधी जी को 11 साल में तीसरी बार 1948 में चयनित किया गया, लेकिन इसी वर्ष जनवरी में उनकी हत्या हो गई। इस घटना के चलते नोबेल समिति इस माथापच्ची में लग गई कि उन्हें मरणोपरांत नोबेल पुरस्कार दिया जाए या नहीं।
गांधी जी को 1948 में यह पुरस्कार इसलिए नहीं मिल पाया। क्योंकि नोबेल समिति ने यह कहकर इस साल किसी को भी पुरस्कार नहीं देने का फैसला किया कि इसके लिए कोई ‘योग्य जीवित उम्मीदवार’ नहीं है। समिति के सलाहकार सीप ने गांधी जी के जीवन के अंतिम पांच महीनों में उनकी गतिविधियों पर एक रिपोर्ट लिखी। उन्होंने लिखा कि गांधी ने जीवनभर आदर्शो के जरिए अपने काम और राजनीति में जिस तरह की अमिट छाप छोड़ी, वह देश और देश के बाहर बहुत से लोगों के लिए प्रेरणा के रूप में काम करती रहेगी।
इस संदर्भ में गांधी की तुलना सिर्फ धर्म संस्थापकों से की जा सकती है। समिति ने किसी को मरणोपरांत नोबेल पुरस्कार देने की संभावना की तलाश की, लेकिन वह खुद संदेहों से घिरी थी। उस समय नोबेल फाउंडेशन के नियमों के अनुसार विशेष परिस्थितियों में किसी को मरणोपरांत नोबेल पुरस्कार दिया जा सकता था, इसलिए गांधी जी को यह पुरस्कार दिया जाना संभव था, लेकिन गांधी किसी संगठन से संबंधित नहीं थे।

रिपोर्ट में लिखा गया कि गांधी ने कोई संपत्ति और वसीयत नहीं छोड़ी। उनके मरणोपरांत पुरस्कार राशि किसे दी जाए, इस बारे में पुरस्कार प्रदाता स्वीडिश संस्थानों ने चर्चा की, लेकिन उत्तर नकारात्मक रहा। उन्होंने सोचा कि मरणोपरांत पुरस्कार तभी दिया जा सकता है जब विजेता का निधन समिति के फैसले के बाद हो।

 

‘आई-जेनरेशन’ = ‘इंस्टालमेंट जेनरेशन’


छोटी के बदले बड़ी चादर का एक्सचेंज ऑफर हो और शेष धनराशि आसान किश्तों में चुकाने की सुविधा, तो ‘अपनी चादर देख कर पाँव पसारने’ की कहावत भला किसको याद रहेगी? कम से कम दोहरी कमाई वाले भारतीय शहरी दंपतियों की युवा पीढ़ी को तो बिल्कुल नहीं, जिन पर टिकी हैं बैंकों और बाजार की निगाहें |

जी हाँ, आधुनिक जीवनशैली को अपनाने की इच्छा भारतीय शहरों में एक नई पीढ़ी को गढ़ चुकी है और इसको नाम दिया गया है ‘आई-जेनरेशन’आप इसके दो अर्थ निकालने को स्वतंत्र हैं, पहला आई है ‘इंडिपेंडेट’ और दूसरा आई है ‘इंस्टालमेंट’। यह ‘इंस्टालमेंट जेनरेशन’ का ही जलवा है कि बैंकों में ऋण देने के लिए मारामारी रहती है।
एक तरफ तो आई-जेनरेशन अपनी खुशियों को खरीदने के लिए ऋषि चार्वाक की परिपाटी पर ‘जब तक जिओ, सुख से जिओ-कर्जा लेकर घी पियो’ का सिद्धांत अपना चुकी है, वहीं पुरानी पीढ़ी को लगता है कि ऋण की यह प्रवृत्ति उनके बच्चों के भविष्य के लिए घातक हो सकती है। इसका जीवंत उदाहरण है देहरादून निवासी सेवानिवृत्त शिक्षिका पार्वती प्रसाद और उनके बेटे-बहू के बीच इन दिनों चल रहा शीतयुद्ध। पार्वती कहती हैं, ”उनके पास तीन साल पुरानी छोटी कार है और अब वे इसको औने-पौने बेच कर इस धनतेरस पर किश्तों में नई लग्जरी कार खरीदने जा रहे हैं। यह और कुछ नहीं, अमीरी का शौक लगा है।” वहीं उनके कामकाजी बेटे-बहू का तर्क है कि बुढ़ापे तक पाई-पाई जोड़ कर सेवानिवृत्ति के बाद हरिद्वार घूमने से अच्छा है कि जिंदगी को आज जी लिया जाए!
पीढि़यों के बीच यह टकराव सामान्य सी बात है, लेकिन यह भी सच है कि किश्तों पर खुशियाँ खरीदने का तरीका कभी-कभी इतना महँगा पड़ जाता है कि मानसिक और पारिवारिक शांति जैसी कीमत चुकानी पड़ जाती है। चंडीगढ़ स्थित फाइनेंशियल एनालिस्ट सुमन गोखले कहती हैं, ”ग्लोबल मंदी के दौर में भी अगर देश में कोई बड़ी समस्या नहीं आई, तो इसकी वजह थी भारतीयों को विरासत में मिला बचत करने और कर्ज से दूर रहने का संस्कार। इसके विपरीत किश्तों पर जीने वाला अमेरिकी समाज आज मुसीबतों में घिरा हुआ है। यकीनन इतने बड़े उदाहरण से तो ऐसा ही लगता है कि पैर फैलाने के लिए चादर उधार माँगने से पहले पूरा गुणा-भाग कर लेना जरूरी है, वरना शान तो क्या बढे़गी, शांति भी नहीं बचेगी!”
[दिखावा बढ़ा समाज में]
आज जमीन-जायदाद और जेवर ही नहीं, जीन्स और टूर पैकेज तक कर्ज और आसान किश्तों पर उपलब्ध हैं। इनके संभावित ग्राहक हैं युवा और मध्य आयु वर्ग के ऐसे एग्जीक्यूटिव, जिनके पास ऋण लेने और किश्तों को चुकाने की क्षमता है। कुछ दिन पहले  एक केस आया था, एक व्यक्ति ने पत्नी की जिद की वजह से कर्ज लेकर हैसियत से बड़ी गाड़ी खरीद ली। बाद में किश्तें अदा करने में पसीने छूटने लगे तो उन्होंने गाड़ी बेचने का फैसला लिया।  देखा जाये तो यह दिखावा ही नहीं, एक बीमार मानसिकता है। इसकी वजह से घरों में तनाव होता है और बच्चे भी प्रभावित होते हैं।
[बढ़ा है लाइफस्टाइल प्रेशर]

इस तेज रफ्तार जिंदगी में इंसान सब कुछ पा लेना चाहता है, जबकि उसे यह मालूम नहीं होता कि उसे किस चीज की जरूरत है और किसकी नहीं। लोग अपनी जिंदगी से कम और दूसरों की समृद्धि से ज्यादा दुखी होने लगे हैं। यही लाइफस्टाइल प्रेशर होता है |

लोग लाइफस्टाइल को लेकर जरूरत से ज्यादा कॉन्शस हो गए हैं। रोज़ कई लोग मिलते रहते हैं, जो लाइफस्टाइल को लेकर डिप्रेशन के शिकार होते हैं। हालांकि वे मानने को तैयार नहीं होते, लेकिन जब उनसे बात करी जाये, तब चीजें खुलकर सामने आती हैं। वे यह नहीं जानते कि किश्तों में खुशियां नहीं खरीदी जा सकतीं, खुशियां तो हमारे मन के भीतर से आती हैं।

 

भारत है बालिका बधुओं का देश! – यूनीसेफ

भारत निरंतर एक विश्वशक्ति बनने की राह पर अग्रसर है। इसकी प्रतिभा का लोहा पूरी दुनिया मान रही है। लेकिन कई बार भारत की ऐसी तस्वीर भी देखने को मिलती है जिसमें उसका खूबसूरत चेहरा कहीं छिप जाता है।
दो दिन पहले ही एक रिपोर्ट में भारत  में ‘हाई चाइल्ड मोरटेलिटी रेट’ की खबर आई थी। अब यूनीसेफ ने यह कहकर भारत  की चिंता और बढ़ा दी है कि यहां दुनिया की एक तिहाई बाल बधुएं हैं।
टीवी सीरियल बालिका वधु में आनंदी और जगदीश की कहानी का उद्धेश्य निश्चित ही बाल विवाह की समस्या को उजागर करना है। लेकिन भारत  में लाखों ऐसी आनंदी हैं जिनकी छोटी उम्र में ही शादी कर उनका बचपन उनसे छीन लिया गया है। यूनाइटेड नेशंस की यूनिट यूनीसेफ ने अपनी नई रिपोर्ट ‘प्रोग्रेस फॉर चिल्ड्रन: ए रिपोर्ट कार्ड ऑन चाइल्ड प्रोटेक्शन’ में कहा गया है कि लिट्रेसी रेट बढ़ने और चाइल्ड मैरिज पर कानूनी रोक होने के बावजूद भारत में धर्म और परंपराओं के चलते बाल विवाह आज भी जारी है।
रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के एक तिहाई बाल विवाह अकेले भारत में ही होते हैं, जबकि यहां कई नवजात बच्चों का बर्थ रजिस्ट्रेशन भी नहीं कराया जाता है।
साउथ एशिया में दुनिया के किसी अन्य हिस्से के मुकाबले सबसे अधिक बाल विवाह  होने को रेखांकित करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत और नेपाल में सबसे अधिक बाल विवाह होते हैं जो १०% या उससे अधिक हैं।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि विश्व की आधे से अधिक बालिका वधुएं साउथ एशिया में हैं। यह भी कहा गया है कि 2007 में भारत में 2.5 करोड़ लड़कियों की शादी  18 साल की उम्र तक कर दी गई थी। इतना ही नहीं भारत , बांग्लादेश और नेपाल में कई लड़कियों की शादी दस साल की उम्र  के अंदर ही कर दी गई है।
नो बर्थ रजिस्ट्रेशन
इसी क्षेत्र में आधे से अधिक नवजात शिशुओं के जन्म को रजिस्टर ही नहीं किया जाता। रिपोर्ट कहती है कि एक अनुमान के अनुसार, साउथ एशिया में 2007 में ४७%  बच्चों का जन्म के समय रजिस्ट्रेशन नहीं किया गया और ऐसे दो करोड़ 40 लाख बच्चों में से दस लाख 60 हजार भारत से थे। रिपोर्ट के अनुसार, 2000-08 के बीच अफगानिस्तान में सिर्फ 6 %  और बांग्लादेश में 10 %  ही जन्म  के रजिस्ट्रेशन कराए गए थे, जबकि भारत में 41 % और मालदीव में 73 %  जन्म रजिस्टर्ड थे।
भारत में तीन करोड़ चाइल्ड लेबर
यूनीसेफ की बाल संरक्षण विभाग की प्रमुख सुसेन बिसेल ने कहा कि हमें कार्रवाई के लिए डेटा की जरूरत है। हम इस मामले में सुनिश्चित हो सकते हैं कि यदि हमारी कार्रवाई सबूतों पर आधारित है तो हम जो कर रहे हैं वह सही है।
चाइल्ड लेबर के संबंध में यूनीसेफ ने अनुमान व्यक्त किया है कि दुनियाभर में पांच से 14 साल की उम्र  के 15 करोड़ बच्चे चाइल्ड लेबर के दंश को झेल रहे हैं। रिपोर्ट कहती है कि साउथ एशियाई क्षेत्र के 13 % बच्चे यानी करीब चार करोड़ 40 लाख चाइल्ड लेबर हैं। इनमें से करीब तीन करोड़ बच्चे अकेले भारत में निवास करते हैं।
बनानी होगी पॉलिसी
रिपोर्ट में कहा गया है कि इन तथ्यों के आधार पर चाइल्ड लेबर की समाप्ति के लिए क्षेत्र आधारित नीतियां बनाना जरूरी है। इसके साथ ही यह भी बताया गया है कि चाइल्ड लेबर, प्रॉस्टीट्यूशन और घरेलू कामकाज के लिए बहुत से नेपाली बच्चों का भारत  में शोषण होता है। इसी मकसद से बहुत से पाकिस्तानी लड़के, लड़कियों को मानव तस्करी के जरिए अफगानिस्तान ले जाया जाता है।
तो तरक्की नहीं करेगा समाज

यूनीसेफ की चीफ एन्ना वेनमैन ने कहा कि यदि किसी समाज के इतने छोटे बच्चों का जबरन बाल विवाह, सैक्स वर्कर के तौर पर शोषण किया जाएगा और उन्हें मूल अधिकारों से वंचित किया जाएगा तो वह समाज तरक्की नहीं कर सकता। वेनमैन ने कहा कि बच्चों के अधिकारों के हनन की गंभीरता को समझना पहला कदम है ताकि एक ऐसा माहौल बनाया जा सके जहां बच्चे सुरक्षित हों और उनकी क्षमताओं का पूर्ण विकास करने में मदद मिल सके।

 

क्या हम ऐसे जनतंत्र में जी रहे हैं, जिसे परिवारतंत्र चला रहा है ?

राजनीति की दुनिया में चुनाव एक पर्व की तरह होता है, जब कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए फसल काटने का वक्त होता है। जनतंत्र के हिसाब से यह पर्व जनता का होना चाहिए, जब आम मतदाता नेताओं को बता सकें कि उन्होंने पिछले पाच वर्षो में क्या बोया और अब वे क्या काटेंगे ? लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है……. या फिर वोटर इस चुनाव में सिर्फ घी डालने का ही काम करता है। उसके घी रूपी वोट से बड़े-बड़े रजनीतिक परिवारों के चिराग रोशन होते हैं।

इस बार विधानसभा चुनावों में भी कई बड़े नेताओं के घरों के चिराग ही चमकेंगे। इस बार महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख के बेटे अमित देशमुख, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के बेटे राजेंद्र शेखावत, सुशील कुमार शिदे की बेटी प्रणीति, नारायण राणे के बेटे नितेश राणे काग्रेस की तरफ से मैदान में है।

काग्रेस की लिस्ट में कम से कम 20 नाम ऐसे हैं, जो या तो बड़े नेताओं के रिश्तेदार हैं या फिर किसी बड़े नेता के करीबी। इसी तरह बीजेपी ने भी स्वर्गीय प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन और गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा को टिकट दिया है।

ऐसे में आम कार्यकर्ताओं या उम्मीदवारों के लिए जगह कहाँ रही? उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में अमरावती सीट! वहाँ से काग्रेस विधायक और सुनील देशमुख ने भले ही कितना काम किया हो, लेकिन अगर सीट पर महामहिम राष्ट्रपति के पुत्र का दिल आ गया तो फिर उन्हें कौन रोक सकता है?

विलासराव देशमुख को काग्रेस हाईकमान ने भले ही 26/11 के हमले के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतार दिया, लेकिन एक ही साल में उनकी गलतियों को भुला दिया। पिछले साल काग्रेस हाईकमान की नजर में वह मुख्यमंत्री बनने लायक नहीं थे, लेकिन अब वह कैबिनेट मंत्री हैं। उनके भाई महाराष्ट्र सरकार में मंत्री हैं और अब उनके पुत्र भी विधानसभा में प्रवेश की तैयारी में हैं।

सच्चाई भी यही है कि अमूमन इनमें से सभी स्टार पुत्र या पुत्री जीत भी जाएंगे, क्योंकि जनता के पास विकल्प नहीं है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो बालीवुड और पॉलीवुड यानी पोलिटिक्स में एक जैसे ही हालात हैं। बालीवुड में भी बड़े सितारों के बच्चों ने बाहरी कलाकारों के रास्ते को रोक रखा है और राजनीति में भी यही हाल है, लेकिन बॉलीवुड में दर्शकों के पास विकल्प ज्यादा है और वहा दर्शक स्टार पुत्र की फिल्म छोड़कर शाहरुख खान की फिल्म देख सकता है।

हालाकि अगर आप गौर करें तो अमिताभ बच्चन, धर्मेद्र, विनोद खन्ना, शशि कपूर, राज कपूर, राकेश रोशन, जितेंद्र आदि तमाम बड़े सितारों ने आखिरकार अपने बेटों को भी फिल्म स्टार बना ही दिया। यही हाल देश और खासकर महाराष्ट्र की राजनीति का है।

अशोक चव्हाण, उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे तीनों ही राजनीतिक परिवारों की देन हैं। विलास राव देशमुख, शरद पवार और शिदे जैसे नेता अपने दम पर आए, लेकिन अब चाहत है उनके बेटे और बेटिया ही वर्षो तक सत्ता पर काबिज रहें। बाल ठाकरे कितनी ही मराठी मानुष की आवाज उठाएं, लेकिन अपनी पार्टी की कमान उन्होंने अपने पुत्र उद्धव को ही सौंप दी है। राज ठाकरे आज इसलिए इतने बड़े बने, क्योंकि उनके नाम के पीछे ठाकरे लगा है।

अगर वह राज सावंत या राज कामले होते तो शायद हम उनकी बात ही नहीं कर रहे होते। शरद पवार हों या सुशील कुमार शिदे या फिर विलास राव देशमुख, ये सभी जमीन से उठकर अपने दम पर पर आए, लेकिन ये जच्बा अब और नहीं। ये सब अब चाहते हैं कि जो जनता पहले इनके पीछे चलती थी, वह अब सुप्रिया सुले, अमित देशमुख और प्रणिति शिदे को भी जीता कर लाए और उन्हें मंत्री बनाए।

ऐसा लगता है सफल लोग, चाहे नेता हों या अभिनेता हाथ में आई सत्ता को हमेशा अपने परिवार तक सीमित रखने की कोशिश को सबसे ज्यादा प्रोत्साहन देते हैं। हमारे देश में कश्मीर से लेकर केरल तक चाहे वह गाधी परिवार हो या फिर करुणानिधि, परिवारवाद की कथाएं हर राज्य में भरी पड़ी हैं। जहाँ एक बार सत्ता एक परिवार के हाथ में आई और दशकों तक फिर बाहर नहीं गई।

काग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाधी ने परिवारवाद को पीछे धकेलने की कोशिश जरूर की, जब उन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले ही मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। काग्रेस के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब पार्टी ने गाधी परिवार से बाहर के किसी नेता को चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार खुलेआम घोषित किया, लेकिन कुछ महीने बाद ही सोनिया जी को अपने नेताओं के पुत्र मोह के सामने झुकना पड़ा।

जनतंत्र का मतलब है जहाँ आम जनता का चुना हुआ राजा हो, लेकिन जरा सोचिए, हम राजा जरूर चुनते हैं, लेकिन राजा बनने का उम्मीदवार कौन होगा, यह हम नहीं चुन पाते। वोटर के सामने एक लिस्ट रख दी जाती है, जिसमें से उसे किसी एक को चुनना है, लेकिन उस सूची में किसका नाम होगा, यह हम नहीं चुनते, बल्कि बड़ी पार्टियों के आका चुनते हैं। तो फिर यह पूरा जनतंत्र कहाँ और कैसे  हुआ ? क्या हम ऐसे जनतंत्र में जी रहे हैं, जिसे परिवारतंत्र चला रहा है ?

असल में आधा चुनाव तो तभी खत्म हो जाता है, जब बड़ी पार्टिया अपने उम्मीदवारों की सूची जारी करती हैं, क्योंकि हमारे सारे विकल्प वहीं पर सीमित हो जाते हैं। हमें एक ऐसे उम्मीदवार को वोट देना है, जिसे हमने नहीं चुना हो। कितना दिलचस्प है जनतंत्र!

बड़ी पार्टियों के उम्मीदवारों की सूची में बड़े नेता या तो अक्सर अपने बच्चों का नाम रखते हैं या फिर अपने रिश्तेदारों का और या अपने बेहद करीबी लोगों का। हमने कई बार बड़े नेताओं के ड्राइवरों और सेक्रेट्रियों तक को चुनाव लड़ते हुए देखा है। इसमे कई जीत भी जाते हैं।

और तो और, आजकल मितव्ययिता का फैशन है। बड़े-बड़े नेता कई दशकों तक सत्ता सुख भोगने के बाद इकानमी क्लास में सफर कर रहे हैं। हवाई जहाज की जगह रेल से जा रहे हैं। ये दिखाने के लिए सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखते हैं।

मुझे लगता है मीडिया के लिए सादगी के पोस्टर लगाने की बजाए बड़े नेताओं को यह प्रण लेना चाहिए कि वे अपनी पार्टी और अपने क्षेत्र या अपने किसी पद का उत्तराधिकारी अपने परिवारजनों को नहीं, बल्कि अपने क्षेत्र या पार्टी के सबसे सशक्त व्यक्ति को बनाएंगे।

क्या गाधी परिवार काग्रेस पार्टी की कमान परिवार के बाहर के नेता को सौंपेगा? क्या करुणानिधि डीएमके की कमान अपने बेटे या परिवारजनों को छोड़कर किसी और को सौंपेंगे? क्या मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, बाला साहब ठाकरे, उमर अब्दुल्ला, मुफ्ती मुहम्मद सईद जैसे नेता इतनी हिम्मत नहीं जुटा सकते कि वे ऐलान करें कि उनकी पार्टी जनता की पार्टी है और उसका नेतृत्व कौन करेगा, यह भी जनता तय करेगी? शायद नहीं !!!

अभी तक हर बड़े राज्य में बड़े नेताओं ने अपनी पार्टियों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह चलाया है। इसलिए हमें हर बड़े राजनीतिक परिवार से कई कई सांसद , विधायक, मंत्री देखने को मिलते हैं। इन तमाम बड़े नेताओं कोसांसद , मंत्री या विधायक बनाने के लिए सबसे पहले पुत्र या पुत्री का चेहरा दिखता है। इसलिए हम इन्हें यूथ ब्रिगेड के नाम पर अपना प्रतिनिधित्व करते देखते हैं।

इस मामले में हमें कम्युनिस्ट सरकारों की तारीफ करनी होगी, क्योंकि वहाँ पर परिवारवाद कम रहा है और ज्यादातर नेता काडर के जरिए आए हैं, अपने परिवार के माध्यम से नहीं।

यहाँ पर मेरा मतलब यह नहीं है कि किसी बड़े नेता के परिवार में होनहार लोग नहीं हो सकते। मेरा मशविरा सिर्फ इतना है कि जनतंत्र का मतलब है समान अधिकार और इस नाते सत्ता तक पहुंचाने का रास्ता सबके लिए समान रूप से मुश्किल या आसान होना चाहिए। तो फिर परिवारवाद की समस्या का हल क्या है? फिलहाल तो वोट ही सबसे बड़ा हल है। अब की बार जब आप वोट डालें तो पार्टियों को बता सकते हैं कि आपके नेताओ से हमे कोई सरोकार नहीं है।