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Category Archives: मैनपुरी

महारष्ट्र में मीडिया कर्मिओं पर हमले पर मैनपुरी की मीडिया ने फूंका ठाकरे का पुतला

पुतला फुकने जाते मैनपुरी के मीडिया कर्मी

ठाकरे के पुतले पर विरोध जताते मीडिया कर्मी

शिव सैनिकों की और से महाराष्ट्र में मीडिया पर किये गए हमले का मैनपुरी के मीडिया ने पुरजोर तरीके से विरोध किया.इस घटना को लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मनाक बताते हुए शिव सैनकों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की है.दैनिक जागरण.राष्ट्रीय सहारा.अमरउजाला.दैनिक हिन्दुस्तान.डीएलए और बुराभाला ब्लॉग के मीडिया कर्मियों ने बाला साहब का पुतला जला कर नारेबाजी की.इस मोके पर विरिष्ठ पत्रकार खुशीराम यादव ने शिवसैनिकों की इस हरकत की कड़े शब्दों में भर्त्सना की.दैनिक जागरण के संवादाता राकेश रागी ने मनसे और शिवसेना को प्रतिवंधित करने की मांग की.राष्ट्रिय सहारा के सिटी चीफ अगम चौहान ने कहा कि भाषा और प्रदेश के नाम पर जनभावनाओं को भडकाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाये.सत्यम चेनल ने इस घटना के विरोध में काली पट्टी बांध कर दफ्तर में काम किया.चेनल के सम्पादक हृदेश सिंह ने कहा कि देश कि जनता को भी एक जुट होकर ऐसे लोगों का विरोध करना चाहिए.बुरा भला ब्लॉग के सम्पादक शिवम् मिश्र ने भी इस घटना को गलत बताया.इस मोके पर सुबोध तिवारी.चेतन चतुर्वेदी.विशाल शर्मा.मुकेश कश्यप.नेहा सिंह.अमित उपाध्याय.कोशल यादव.पंकज चौहान.आशीष दीक्षित.प्रगति चौहान गौरव सहित कई मीडिया कर्मी मौजूद रहे.

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सुप्रसिद्ध मैनपुरी षड्यंत्र काण्ड

अंग्रेजों के अत्याचारों एवं घोर दमन नीति के कारण भारत वर्ष में भीषण असंतोष के बादल मंडराने लगे थे। नौजवानों का रक्त विदेशी सत्ता के विरुद्ध खौलने लगा था। उनमें विदेशी शासन के उन्मूलन का जोश उमड़ रहा था। उ.प्र. इसका अपवाद नहीं रहा। उत्तर प्रदेश में क्रांतिकारी आंदोलन का नेतृत्व बनारस में रहने वाले बंगाली क्रांतिकारियों ने किया था। उनकी प्रेरणा से उत्तर प्रदेश में बहुत से देशभक्त किशोर आकर्षित हुए। मैनपुरी भी इस आग से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। 1915-16 के वाराणसी षडयंत्र केस के रूप में इसका विस्फोट हुआ। अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिए मैनपुरी में भी एक संस्था की स्थापना हुई जिसका प्रमुख केन्द्र मैनपुरी ही रहा। मैनपुरी षडयंत्र केस की विशेषता यह थी कि इसका नियोजन उत्तर प्रदेश के निवासियों ने ही किया था जिसे बाद में अंग्रेजों ने इसे मैनपुरी षडयंत्र केस की संज्ञा दी। गेंदालाल दीक्षित जैसे क्रांतिकारी ने मातृवेदी संस्था की स्थापना कर मैनपुरी षडयंत्र केस के माध्यम से अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का श्रीगणेश किया। यदि मैनपुरी के ही इस संस्था में शामिल देशद्रोही गद्दार दलपत सिंह ने अंग्रेजी सरकार को इसकी मुखबिरी न की होती तो चन्द्रशेखर आजाद की इलाहाबाद में हत्या नहीं हुई होती। मैनपुरी षड्यंत्र केस भारत वर्ष की आजादी का इतिहास का एक ऐसा सुनहरा पृष्ठ है कि जब-जब मैनपुरी के क्रांतिकारियों की याद की जाएगी, मैनपुरी षडयंत्र केस लोगों की जुबान पर अपने आप ही आ जाएगा।

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सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से सभी महान क्रांतिकारियों को शत शत नमन !

 

संयोगिता के लिए चली पृथ्वीराज की तलवार का साक्षी है मैनपुरी

उनकी तलवार जब चलती थी तो रण में बिजलियां सी कौंध जाती थीं। रण के कोने-कोने में एक ही नाम गूंजता था, कि आ गये पृथ्वीराज। पृथ्वीराज चौहान मुगलों के लिये दहशत का पर्याय थे। मोहम्मद गौरी को उन्होंने लगातार 16 युद्धों में धूल चटाई। युद्ध के मैदान में पृथ्वीराज जितने सख्त थे, उनका दिल उतना ही कोमल था। कन्नौज के राजा जयचन्द की बेटी संयोगिता के लिये धड़कता था उनका दिल। संयोगिता और पृथ्वीराज की प्रेम कहानी आज भी इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज है। इन पन्नों में मैनपुरी का भी जिक्र है।
पृथ्वीराज का मैनपुरी से जुड़ाव कम रोचक नहीं है। इस जिले के पड़ोसी जनपद कन्नौज के राजा जयचन्द ने अपनी बेटी संयोगिता के विवाह के लिये स्वयंवर का आयोजन किया। इस स्वयंवर में सारे देश के राजा बुलाये गये केवल पृथ्वीराज चौहान को स्वयंवर का निमंत्रण नहीं दिया गया, जबकि पृथ्वीराज और संयोगिता के बीच चल रहा प्रेम का उन्माद उन दिनों चरम पर था।
स्वयंवर में निमंत्रण न मिलने से नाराज पृथ्वीराज ने अपने प्रेम को पाने के लिये कन्नौज पर चढ़ाई कर दी। पृथ्वीराज ने स्वयंवर स्थल से संयोगिता को अपने साथ लिया और दिल्ली के लिये रवाना हो गये। जयचन्द को ये सब गवारा नहीं हुआ और पृथ्वीराज को जयचन्द्र की सेना ने घेरना शुरू कर दिया। जिले के किशनी, समान और करहल के बीच पृथ्वीराज की सेना को जयचन्द के सैनिकों ने घेर लिया। तब पृथ्वीराज के वीरराज सेनापति मोटामल ने कस्बा करहल में पृथ्वीराज और संयोगिता को आगे रवाना कर जयचन्द की सेना से मोर्चा ले लिया। भीषण युद्ध हुआ। इसमें मोटामल शहीद हो गये, लेकिन संयोगिता और पृथ्वीराज सकुशल दिल्ली पहुंच गए। बाद में पृथ्वीराज को मोटामल के शहीद होने की जानकारी मिली तो उन्हें बहुत दुख हुआ और उन्होंने करहल में मोटामल की मूर्ति स्थापित कराई। विश्राम गृह एवं कुएं का निर्माण कराया। जो आज भी इस इतिहास की गवाही देता है। मोटामल के बारे में इतिहास है कि उनकी मूर्ति पास में बने कुएं में गिर गयी। लोगों ने उसे बाहर निकालना चाहा लेकिन वह मूर्ति बाहर नहीं निकली और आज भी कुएं में ही पड़ी है। इस स्थान पर कालांतर में पीपल के पेड़ के पास देवी-देवताओं की मूर्तियों को शिखर से ढकने के लिये लोगों ने उसका निर्माण कराया, लेकिन शिखर निर्मित होने के बाद भी ढह गया। यहां के निवासी अशोक मिश्र बताते हैं कि होली के तीज से यहां मोटामल महाराज का मेला लगता है।

संयोगिता से जुड़ी एक और कहानी इतिहास में है। कस्बा करहल में हजरत जफर शाह उन दिनों देश के बडे़ ओझाओं के रूप में जाने जाते थे। दिल्ली जाते ही संयोगिता बीमार पड़ गयीं। काफी इलाज के बाद भी उनकी सेहत नासाज बनी रही तो पृथ्वीराज ने जफर शाह को करहल से दिल्ली बुलवाया। दिल्ली जाकर जफर शाह ने संयोगिता को अपने इलाज से ठीक कर दिया। बताया यह भी जाता है कि जिले के पतारा क्षेत्र में बसे चौहानों के 24 गांवों जिन्हें अब चौघरा क्षेत्र कहा जाता है। इनमें से पतारा में घाटमदेव महाराज के वंशज रहते थे। इन वंशजों के यहां पृथ्वीराज की दो मौसी भी ब्याही थीं।

 

आजादी की पहली जंग में खून से लाल हुई थी मैनपुरी की माटी

जिले का इतिहास वीर गाथाओं से भरा पड़ा है। यहां की माटी में जन्मे लाल हमेशा गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए हर सम्भव कोशिश करते रहे। ब्रिटिश राज में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यहां की माटी वीर सपूतों के खून से लाल हुई है। पृथ्वीराज चौहान के बाद उनके वंश के वीर देशभर में बिखर गए। उन्हीं में से एक वीर देवब्रह्मा ने 1193 ई. में मैनपुरी में सर्वप्रथम चौहान वंश की स्थापना की। 1857 में जब स्वतंत्रता आंदोलन की आग धधकी तो महाराजा तेजसिंह की अगुवाई में मैनपुरी में भी क्रांति का बिगुल फूंक दिया गया। तेज सिंह वीरता से लड़े। और अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए। घर के भेदी की वजह से उन्हें भले ही अंग्रेजों को खदेड़ने में सफलता न मिली हो लेकिन इसमें उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। तेजसिंह ने जीवन भर मैनपुरी की धाक पूरी दुनिया में जमाए रखी।
इतिहास गवाह है कि 10 मई 1857 को मेरठ से स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत हुई, जिसकी आग की लपटें मैनपुरी भी पहुंची। इस आंदोलन से पांच साल पहले ही महाराजा तेजसिंह को मैनपुरी की सत्ता हासिल हुई थी। उन्हें जैसे-जैसे अंग्रेजों के जुल्म की कहानी सुनने को मिली, उनकी रगों में दौड़ रहा खून अंग्रेजी हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए खौल उठा और 30 जून 1857 को अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध तेजसिंह ने आंदोलन का बिगुल फूंक दिया। उन्होंने मैनपुरी के स्वतंत्र राज्य की घोषणा करते हुए ऐलान कर दिया। फिर क्या था राजा के ऐलान ने आग में घी का काम किया और उसी दिन तेजसिंह की अगुवाई में दर्जनों अंग्रेज अधिकारी मौत के घाट उतार दिए गए। सरकारी खजाना लूट लिया गया। अंग्रेजों की सम्पत्ति पर तेजसिंह की सेना ने कब्जा कर लिया। तेजसिंह ने तत्कालीन जिलाधिकारी पावर को प्राण की भीख मांगने पर छोड़ दिया और मैनपुरी तेजसिंह की अगुवाई में क्रांतिकारियों की कर्मस्थली बन गयी। मगर स्वतंत्र राज्य अंग्रेजों को बर्दाश्त नहीं था। फलस्वरूप 27 दिसम्बर 1957 को अंग्रेजों ने मैनपुरी पर हमला बोल दिया। इस युद्ध में तेजसिंह के 250 सैनिक भारत माता की चरणों में अर्पित हो गए। प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन में तेजसिंह की भूमिका ने क्रांतिकारियों को एक जज्बा प्रदान कर दिया। हालांकि उनके चाचा राव भवानी सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध तेजसिंह का साथ नहीं दिया। फलस्वरूप तेजसिंह अंग्रेजों से लड़ते हुए गिरफ्तार हो गए और अंग्रेजों ने उन्हें बनारस जेल भेज दिया। इसके बाद भवानी सिंह को मैनपुरी का राजा बना दिया गया। 1897 में बनारस जेल में ही तेजसिंह की मौत हो गयी।

मैनपुरी के इस क्रांतिकारी राजा को उनकी प्रजा का शत शत नमन |