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Category Archives: आज के नेता

क्या हम ऐसे जनतंत्र में जी रहे हैं, जिसे परिवारतंत्र चला रहा है ?

राजनीति की दुनिया में चुनाव एक पर्व की तरह होता है, जब कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए फसल काटने का वक्त होता है। जनतंत्र के हिसाब से यह पर्व जनता का होना चाहिए, जब आम मतदाता नेताओं को बता सकें कि उन्होंने पिछले पाच वर्षो में क्या बोया और अब वे क्या काटेंगे ? लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है……. या फिर वोटर इस चुनाव में सिर्फ घी डालने का ही काम करता है। उसके घी रूपी वोट से बड़े-बड़े रजनीतिक परिवारों के चिराग रोशन होते हैं।

इस बार विधानसभा चुनावों में भी कई बड़े नेताओं के घरों के चिराग ही चमकेंगे। इस बार महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख के बेटे अमित देशमुख, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के बेटे राजेंद्र शेखावत, सुशील कुमार शिदे की बेटी प्रणीति, नारायण राणे के बेटे नितेश राणे काग्रेस की तरफ से मैदान में है।

काग्रेस की लिस्ट में कम से कम 20 नाम ऐसे हैं, जो या तो बड़े नेताओं के रिश्तेदार हैं या फिर किसी बड़े नेता के करीबी। इसी तरह बीजेपी ने भी स्वर्गीय प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन और गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा को टिकट दिया है।

ऐसे में आम कार्यकर्ताओं या उम्मीदवारों के लिए जगह कहाँ रही? उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में अमरावती सीट! वहाँ से काग्रेस विधायक और सुनील देशमुख ने भले ही कितना काम किया हो, लेकिन अगर सीट पर महामहिम राष्ट्रपति के पुत्र का दिल आ गया तो फिर उन्हें कौन रोक सकता है?

विलासराव देशमुख को काग्रेस हाईकमान ने भले ही 26/11 के हमले के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतार दिया, लेकिन एक ही साल में उनकी गलतियों को भुला दिया। पिछले साल काग्रेस हाईकमान की नजर में वह मुख्यमंत्री बनने लायक नहीं थे, लेकिन अब वह कैबिनेट मंत्री हैं। उनके भाई महाराष्ट्र सरकार में मंत्री हैं और अब उनके पुत्र भी विधानसभा में प्रवेश की तैयारी में हैं।

सच्चाई भी यही है कि अमूमन इनमें से सभी स्टार पुत्र या पुत्री जीत भी जाएंगे, क्योंकि जनता के पास विकल्प नहीं है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो बालीवुड और पॉलीवुड यानी पोलिटिक्स में एक जैसे ही हालात हैं। बालीवुड में भी बड़े सितारों के बच्चों ने बाहरी कलाकारों के रास्ते को रोक रखा है और राजनीति में भी यही हाल है, लेकिन बॉलीवुड में दर्शकों के पास विकल्प ज्यादा है और वहा दर्शक स्टार पुत्र की फिल्म छोड़कर शाहरुख खान की फिल्म देख सकता है।

हालाकि अगर आप गौर करें तो अमिताभ बच्चन, धर्मेद्र, विनोद खन्ना, शशि कपूर, राज कपूर, राकेश रोशन, जितेंद्र आदि तमाम बड़े सितारों ने आखिरकार अपने बेटों को भी फिल्म स्टार बना ही दिया। यही हाल देश और खासकर महाराष्ट्र की राजनीति का है।

अशोक चव्हाण, उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे तीनों ही राजनीतिक परिवारों की देन हैं। विलास राव देशमुख, शरद पवार और शिदे जैसे नेता अपने दम पर आए, लेकिन अब चाहत है उनके बेटे और बेटिया ही वर्षो तक सत्ता पर काबिज रहें। बाल ठाकरे कितनी ही मराठी मानुष की आवाज उठाएं, लेकिन अपनी पार्टी की कमान उन्होंने अपने पुत्र उद्धव को ही सौंप दी है। राज ठाकरे आज इसलिए इतने बड़े बने, क्योंकि उनके नाम के पीछे ठाकरे लगा है।

अगर वह राज सावंत या राज कामले होते तो शायद हम उनकी बात ही नहीं कर रहे होते। शरद पवार हों या सुशील कुमार शिदे या फिर विलास राव देशमुख, ये सभी जमीन से उठकर अपने दम पर पर आए, लेकिन ये जच्बा अब और नहीं। ये सब अब चाहते हैं कि जो जनता पहले इनके पीछे चलती थी, वह अब सुप्रिया सुले, अमित देशमुख और प्रणिति शिदे को भी जीता कर लाए और उन्हें मंत्री बनाए।

ऐसा लगता है सफल लोग, चाहे नेता हों या अभिनेता हाथ में आई सत्ता को हमेशा अपने परिवार तक सीमित रखने की कोशिश को सबसे ज्यादा प्रोत्साहन देते हैं। हमारे देश में कश्मीर से लेकर केरल तक चाहे वह गाधी परिवार हो या फिर करुणानिधि, परिवारवाद की कथाएं हर राज्य में भरी पड़ी हैं। जहाँ एक बार सत्ता एक परिवार के हाथ में आई और दशकों तक फिर बाहर नहीं गई।

काग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाधी ने परिवारवाद को पीछे धकेलने की कोशिश जरूर की, जब उन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले ही मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। काग्रेस के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब पार्टी ने गाधी परिवार से बाहर के किसी नेता को चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार खुलेआम घोषित किया, लेकिन कुछ महीने बाद ही सोनिया जी को अपने नेताओं के पुत्र मोह के सामने झुकना पड़ा।

जनतंत्र का मतलब है जहाँ आम जनता का चुना हुआ राजा हो, लेकिन जरा सोचिए, हम राजा जरूर चुनते हैं, लेकिन राजा बनने का उम्मीदवार कौन होगा, यह हम नहीं चुन पाते। वोटर के सामने एक लिस्ट रख दी जाती है, जिसमें से उसे किसी एक को चुनना है, लेकिन उस सूची में किसका नाम होगा, यह हम नहीं चुनते, बल्कि बड़ी पार्टियों के आका चुनते हैं। तो फिर यह पूरा जनतंत्र कहाँ और कैसे  हुआ ? क्या हम ऐसे जनतंत्र में जी रहे हैं, जिसे परिवारतंत्र चला रहा है ?

असल में आधा चुनाव तो तभी खत्म हो जाता है, जब बड़ी पार्टिया अपने उम्मीदवारों की सूची जारी करती हैं, क्योंकि हमारे सारे विकल्प वहीं पर सीमित हो जाते हैं। हमें एक ऐसे उम्मीदवार को वोट देना है, जिसे हमने नहीं चुना हो। कितना दिलचस्प है जनतंत्र!

बड़ी पार्टियों के उम्मीदवारों की सूची में बड़े नेता या तो अक्सर अपने बच्चों का नाम रखते हैं या फिर अपने रिश्तेदारों का और या अपने बेहद करीबी लोगों का। हमने कई बार बड़े नेताओं के ड्राइवरों और सेक्रेट्रियों तक को चुनाव लड़ते हुए देखा है। इसमे कई जीत भी जाते हैं।

और तो और, आजकल मितव्ययिता का फैशन है। बड़े-बड़े नेता कई दशकों तक सत्ता सुख भोगने के बाद इकानमी क्लास में सफर कर रहे हैं। हवाई जहाज की जगह रेल से जा रहे हैं। ये दिखाने के लिए सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखते हैं।

मुझे लगता है मीडिया के लिए सादगी के पोस्टर लगाने की बजाए बड़े नेताओं को यह प्रण लेना चाहिए कि वे अपनी पार्टी और अपने क्षेत्र या अपने किसी पद का उत्तराधिकारी अपने परिवारजनों को नहीं, बल्कि अपने क्षेत्र या पार्टी के सबसे सशक्त व्यक्ति को बनाएंगे।

क्या गाधी परिवार काग्रेस पार्टी की कमान परिवार के बाहर के नेता को सौंपेगा? क्या करुणानिधि डीएमके की कमान अपने बेटे या परिवारजनों को छोड़कर किसी और को सौंपेंगे? क्या मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, बाला साहब ठाकरे, उमर अब्दुल्ला, मुफ्ती मुहम्मद सईद जैसे नेता इतनी हिम्मत नहीं जुटा सकते कि वे ऐलान करें कि उनकी पार्टी जनता की पार्टी है और उसका नेतृत्व कौन करेगा, यह भी जनता तय करेगी? शायद नहीं !!!

अभी तक हर बड़े राज्य में बड़े नेताओं ने अपनी पार्टियों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह चलाया है। इसलिए हमें हर बड़े राजनीतिक परिवार से कई कई सांसद , विधायक, मंत्री देखने को मिलते हैं। इन तमाम बड़े नेताओं कोसांसद , मंत्री या विधायक बनाने के लिए सबसे पहले पुत्र या पुत्री का चेहरा दिखता है। इसलिए हम इन्हें यूथ ब्रिगेड के नाम पर अपना प्रतिनिधित्व करते देखते हैं।

इस मामले में हमें कम्युनिस्ट सरकारों की तारीफ करनी होगी, क्योंकि वहाँ पर परिवारवाद कम रहा है और ज्यादातर नेता काडर के जरिए आए हैं, अपने परिवार के माध्यम से नहीं।

यहाँ पर मेरा मतलब यह नहीं है कि किसी बड़े नेता के परिवार में होनहार लोग नहीं हो सकते। मेरा मशविरा सिर्फ इतना है कि जनतंत्र का मतलब है समान अधिकार और इस नाते सत्ता तक पहुंचाने का रास्ता सबके लिए समान रूप से मुश्किल या आसान होना चाहिए। तो फिर परिवारवाद की समस्या का हल क्या है? फिलहाल तो वोट ही सबसे बड़ा हल है। अब की बार जब आप वोट डालें तो पार्टियों को बता सकते हैं कि आपके नेताओ से हमे कोई सरोकार नहीं है।

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राहुल की राजनीतिक संवेदना

इस महीने राहुल गांधी ने गोपनीय रूप से उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले के एक गांव में खाना खाया, रात को वहीं ठहरे और वापस दिल्ली चले आए। उत्तर प्रदेश में उनकी ऐसी कई यात्राएं हो चुकी हैं जो उत्तर प्रदेश सरकार को चिढ़ाने के उद्देश्य से ही होती हैं। गरीबों की सेवा राजनीतिक अभिनय नहीं, संवेदनाजन्य मन की पीड़ा है। इसकी अभिव्यक्ति तो महात्मा गांधी ने चंपारण में 1918 में की थी। उन्हे भी क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बिहार की गरीबी के दर्शन के लिए आमंत्रित किया था। वहां की हिला देने वाली गरीबी के अनुभव के बाद उन्हें शोषण और लूट के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा मिली। उन्होंने चंपारन में ही पहला सत्याग्रह किया। गरीबी उन्मूलन व अन्याय के विरुद्ध कारगर संघर्ष के लिए अड़ने और टिकने की आदत बनानी होगी। कांग्रेसजन कहते है कि राहुल गांधी भारत की गरीबी का साक्षात दर्शन करना चाहते है।
गांधीजी से लेकर राष्ट्रीय आंदोलन के सभी नेताओं ने गरीबी देखी ही नहीं थी, उसे भोगा भी था। आजाद भारत में गरीबी अध्ययन के अनेक कमीशन बने। योजना आयोग तो 1952 से गरीबी का ही अध्ययन कर रहा है। भारत की गरीबी, गांवों की उपेक्षा, सड़क, बिजली का अभाव क्या इसे अभी जानना शेष है? जो जानना है वह यह कि इसकी समाप्ति के लिए क्या किया जा रहा है? जिनके हाथ में सत्ता है वे कुछ ठोस उपाय करने की जगह इसे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को चिढ़ाने का मुद्दा बनाएं, इसे उचित नहीं कहा जा सकता। भारत सरकार ने भीषण सूखे से जूझ रहे देश को धन जुटाने का सबसे सबल रास्ता सादगी बताया। उस पर अमल शुरू हुआ कि कांग्रेस के सभी सांसद अपने वेतन का 20 फीसदी सूखा राहत कोष में दें। उनके मंत्री और सांसद को पंचसितारा होटल की ठंडी हवा से बाहर किया गया। मितव्ययिता का श्रेय लूटने की होड़ में सत्ताधारी दल ने यह प्रदर्शन किया। यह हास्यास्पद है, क्योंकि सांसदों के ऊपर होने वाले खर्चे में वेतन तो नाममात्र है। राहुल गांधी साधारण श्रेणी में गए, लेकिन उनके सुरक्षा प्रहरी बुलेट प्रूफ गाड़ियों का काफिला लेकर विशेष विमान से उनके आगमन के पूर्व लखनऊ में विराजमान थे। अपने वेतन का 3200 रुपये दान कर देना और डेढ़ सौ करोड़ की विश्व की सर्वाधिक खर्चीली सुरक्षा घेरे में चलना पाखंड नहीं तो क्या है? विदेश राज्य मंत्री ने साधारण श्रेणी को पशुओं की श्रेणी करार दिया तो उन्हे फटकार मिली, लेकिन उसी दिन प्रधानमंत्री ने विशेष विमान में सैकड़ों सहयोगियों, रक्षा कर्मियों के साथ अमेरिका की यात्रा शुरू कर दी। वित्त मंत्री के सादगी मंत्र का इससे बड़ा उपहास क्या होगा? गांधीजी का नाम लेकर सादगी का मंत्र जाप आसान है, लेकिन उसका अनुकरण कठिन है।
मेरे अनुमान से जब राहुल गांधी ने ग्राम प्रधान की पूड़ी-सब्जी खाई, उनके घर में रात गुजारी और वहीं स्नान किया तो उन्हे दिल के किसी कोने में यह बात जरूर कचोट रही होगी कि जिस गरीब देश को चलाने की जिम्मेदारी मुझे लेनी पड़ सकती है उस देश के राजपुरुषों और राजकुमारों पर डेढ़ सौ करोड़ की खर्चीली सुरक्षा क्या तार्किक है? यदि अहम प्रश्न ने उन्हे परेशान नहीं किया तो विश्वास किया जा सकता है कि उनका दलित और गरीब प्रेम रणनीतिक है, हृदय के अंत:स्थल से उपजी संवेदना का हिस्सा नहीं। गांवों में टिकने, ग्रामीणों से घुलमिल जाने का अभिनय उत्तर प्रदेश के कई मुख्यमंत्रियों ने अपने अधिकारियों के अमले के साथ कई बार किया है। जार्ज फनरंडीज ने तो उद्योग मंत्री की हैसियत से अपनी सभी सरकारी बैठकें दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में की हैं, लेकिन बैठक समाप्त होते ही नेता और अफसर गांव की पीड़ा गांव में छोड़कर राजधानी के लिए उड़ जाते थे।
राष्ट्रीय आंदोलन के शाश्वत मूल्यों को कांग्रेस की स्वातंत्रयोत्तर पीढ़ी ने इतना बदरंग किया कि वे निष्प्रभावी हो गए। स्वदेशी, सादगी सांकेतिक विषय हो गए। राजकर्ताओं के मुंह से सादगी का मंत्र मजाक का विषय बन गया है। 1971 की महान विजय के बाद इंदिरा गांधी के कार्यकाल में पेट्रोल के दाम पांच गुना बढ़े थे। देश के लोग कार का उपयोग न्यूनतम करें, इसके लिए वह एक दिन बैलगाड़ी में बैठकर संसद भवन पहुंचीं और दूसरे ही दिन से गाड़ियों का काफिला उनके साथ आने लगा। मोरारजी देसाई अपने निवास से संसद भवन पैदल आने लगे और इस सिलसिले को लगातार पांच वर्ष तक जारी रखा। भारत के तत्कालीन गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्त वेस्टर्न कोर्ट के दो कमरे के फ्लैट से ही गृह मंत्रालय का कामकाज निपटाते रहे। जवाहर लाल नेहरू ने अवध के ताल्लुकेदारों के खिलाफ किसानों, गरीबों का आंदोलन खड़ा किया था। वह अवध की गरीबी का कारण ताल्लुकेदारों की लूटखसोट की प्रवृत्ति को मानते थे, किंतु उनके उत्तराधिकारियों ने अवध में कांग्रेस का नेतृत्व ताल्लुकेदारों के हाथ में थमा दिया। जब कभी बाढ़, सूखा के दर्शन करने हुए तो इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया तक सभी को नींद इन्हीं ताल्लुकेदारों के राजप्रसाद में आती थी।
कुछ लोग खुश हो सकते हैं कि राहुल गांधी ने दलित, उपेक्षित के अहाते में शयन का अभ्यास शुरू किया है। इस तरह का अभ्यास वीपी सिंह ने 1990 में अमेठी के गांवों में शुरू किया था। गरीब की खाट पर सोना, कुएं में से पानी निकालकर स्नान करना, उनसे मांगकर खाना खाना आदि सब किया, लेकिन उन्होंने उनका भाग्य बदलने का सार्थक प्रयास नहीं किया। क्या राहुल गांधी का गांवों में रात्रि प्रवास सत्ता संतुलन बदलने का कोई कारगर प्रयास है? क्या दो-चार गरीब, दलित परिवारों को अपने प्रभाव के प्रयास से कुछ धन दान दिलाकर गरीबी उन्मूलन हो जाएगा अथवा व्यवस्था बदलकर उत्पादन के साधनों की मिल्कियत इन गरीब हाथों में देकर इन्हे सक्षम बनाना होगा? क्या अवध के राजपुत्र राहुल गांधी को कुछ करने देंगे, क्योंकि अवध के सभी राजघराने कांग्रेस में है और राहुल के मित्र हैं।

– मोहन सिंह [लेखक सपा के पूर्व सांसद हैं]

 

बोल कलावती, तेरे मन में क्या है ??

कांग्रेस के युवराज ने जिस कलावती की दयनीय हालत की चर्चा संसद में कर उसे राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में ला दिया था, वही कलावती अब कांग्रेस के खिलाफ खड़ी है। कलावती महाराष्ट्र की वानी विधानसभा सीट से पर्चा दाखिल करने जा रही है।
रिपब्लिकन लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट [आरएलडीएफ] ने रविवार को कलावती के समर्थन के साथ चुनाव प्रचार के लिए उसे पांच लाख रुपये देने का भी ऐलान किया।
आरएलडीएफ के नेताओं ने विदर्भ के एक किसान की विधवा कलावती बांडुरकर से मुलाकात कर यवतमाल जिले की इस सीट से लड़ने के लिए चुनावी रणनीति पर चर्चा की। बाद में मोर्चे में शामिल पीडब्ल्यूपी के नेता जयंत पाटिल ने इस फैसले का समर्थन करते हुए कहा कि कलावती किसानों के परिजनों की तकलीफों की प्रतीक है।
रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया [आरपीआई] के नेता रामदास अठावले और पाटिल ने यहां एक संवाददाता सम्मेलन में कांग्रेस पर किसानों से झूठे वादे करने का आरोप लगाया। इन नेताओं ने कहा, ‘विदर्भ के दौरे पर कांग्रेस महासचिव राहुल गाधी कलावती से उसके घर पर मिले थे और लोकसभा में अपने भाषण के जरिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान उसकी ओर खींचा था। लेकिन, जब वह वादे के मुताबिक राहुल से मदद मांगने दिल्ली गई तो उसे भगा दिया गया। यह दिखाता है कि कांग्रेस का नजरिया क्या है।’ पाटिल ने बताया कि उनकी पार्टी कलावती को चुनाव प्रचार के लिए पांच लाख रुपये देगी।
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राहुल बाबा रचित ‘कलावती प्रेम’ की ‘सत्यता’ के बारे में जरूर पढ़े  :-

कलावती को भूले राहुल लाला ….पर क्यों भला ???

 
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Posted by पर सितम्बर 22, 2009 में आज के नेता, कलावती

 

‘‘इन्साफ की डगर पर, नेता नही चलेंगे’’

‘‘इन्साफ की डगर पर, नेता नही चलेंगे’’


इन्साफ की डगर पर, नेता नही चलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।।
दिल में घुसा हुआ है,
दल-दल दलों का जमघट।
संसद में फिल्म जैसा,
होता है खूब झंझट।
फिर रात-रात भर में, आपस में गुल खिलेंगे।
होगा जहाँ मुनाफा उस ओर जा मिलेंगे।।
गुस्सा व प्यार इनका,
केवल दिखावटी है।
और देश-प्रेम इनका,
बिल्कुल बनावटी है।
बदमाश, माफिया सब इनके ही घर पलेंगे।
होगा जहाँ मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।।
खादी की केंचुली में,
रिश्वत भरा हुआ मन।
देंगे वहीं मदद ये,
होगा जहाँ कमीशन।
दिन-रात कोठियों में, घी के दिये जलेंगे।
होगा जहाँ मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।।

—-डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक

 

फ़िर क्यों करे हम चिंता ??

रोया करे जनता – चिंता करने तो थोड़े ही बने हम अधिकारी या नेता ??

रोया करे जनता, कितना भी ख़राब हो रास्ता, अपन क्यों करे चिंता,
चिंता करने तो थोड़े ही बने हम अधिकारी या नेता ??
भाई, अपने पास तो गाडी है, चलती भी बहुत प्यारी है ,
हमे तो दुखी नहीं करता यह रास्ता, फ़िर क्यों करे हम चिंता ??
हम है अधिकारी बड़े या हम है नेता,
हमे है देश की चिंता, रास्ते की चिंता करे जनता !!
देखें :-

मैनपुरी का करहल रोड: बदहाली की दास्ता सुना रहा अपनी जुबानी

 
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Posted by पर सितम्बर 14, 2009 में आज के नेता

 

भारतीय लोकतंत्र का कृत्रिम चेहरा

वर्षों पहले लोकतंत्र की परिभाषा करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था-ऐसा तंत्र जो आम लोगों का होता है, आम लोगों द्वारा संचालित होता है और आम लोगों के लिए होता है। हमारे देश की लोकसभा ऐसे ही आम लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, किंतु क्या स्वतंत्र भारत की पंद्रहवीं लोकसभा सचमुच आम कहे जाने वाले लोगों की प्रतिनिधि सभा है?

इस बार की लोकसभा तो ऐसी नहीं दिखती। लोकसभा के कुल सदस्यों की संख्या साढ़े पांच सौ से कुछ कम होती है। इस बार जो सदस्य चुन कर लोकसभा में आए हैं उनमें 300 से अधिक करोड़पति हैं। पिछले लोकसभा में ऐसे सदस्यों की गिनती 154 थी। यदि लोकसभा के सदस्यों की संख्या को देश की समूची आर्थिकता का पैमाना मान लिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि गत पांच वर्षो में इस देश के आम आदमी की आर्थिक स्थिति दो गुना अच्छी हो गई है, किंतु क्या ऐसा हुआ है?
आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से कांग्रेस टिकट पर चुनकर आए लगदापति राजगोपाल सबसे समृद्ध संसद सदस्य हैं। इनके पास 295 करोड़ रुपये की संपत्ति है। दूसरे स्थान पर भी खामम्भ क्षेत्र से तेलगूदेशम पार्टी के सदस्य नागेश्वर राव हैं। इनके पास 173 करोड़ रुपये की चल-अचल संपत्ति है। हरियाणा में कुरुक्षेत्र से कांग्रेस टिकट पर चुने गए सदस्य नवीन जिंदल भी बहुत पीछे नहीं हैं। ये 131 करोड़ रुपये की संपत्ति के स्वामी हैं। भंडारा-गोंदिया से राष्ट्रवादी कांग्रेस के सांसद प्रफुल्ल पटेल 90 करोड़ की संपत्ति के मालिक हैं। आंध्र प्रदेश के पेड़ापल्ली क्षेत्र से कांग्रेस टिकट पर चुने गए डा. जी विवेकानंद 73 करोड़ के मालिक हैं। दिवंगत मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगनमोहन कांग्रेस के सांसद हैं और 72.8 करोड़ रुपये की संपत्ति उनके पास है।
पंजाब से शिरोमणि अकाली दल के टिकट पर चुनी गई सांसद हरसिमरन कौर के पास 60 करोड़ से अधिक की संपत्ति है। उनसे थोड़ा पीछे केंद्रीय कृषि मंत्री श्री शरद यादव की पुत्री सुप्रिया सुले 50 करोड़ से अधिक की स्वामिनी कही जाती हैं। गौतम बुद्ध नगर, नोएडा से बसपा के सांसद सुरेंद्र सिंह नागर और बेंगलूर से जनता दल के सांसद एचडी कुमारस्वामी भी 50 करोड़ के आसपास की संपत्ति के मालिक हैं। प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) से कांग्रेस की ओर से विजयी राजकुमारी रत्ना सिंह यह नहीं मानतीं कि वह धनवान हैं, क्योंकि उनके पास केवल 67 करोड़ मूल्य की संपत्ति है। यह हैं दस सबसे अमीर सांसद, जिनमें 5 को कांग्रेस ने अपना टिकट दिया था। सबसे अधिक करोड़पति सांसद भी कांग्रेस के पास है। 300 में से 138 सांसद कांग्रेस के हैं। भाजपा के 58, सपा के 14 और बसपा के 13 सांसद करोड़पति हैं।
लोकसभा के सदस्यों के संबंध में विचार करते समय एक बात और दृष्टव्य है। नई लोकसभा में 150 सांसद ऐसे हैं जिनकी पृष्ठभूमि आपराधिक है। पिछली लोकसभा में इनकी संख्या 128 थी। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों में 72 सदस्य ऐसे हैं जिनके विरुद्ध गंभीर अपराध के मामले दर्ज हैं। अपराधी पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को अपना उम्मीदवार बनाने में कोई भी राजनीतिक दल किसी दूसरे दल से पीछे नहीं है। इस बार कांग्रेस पार्टी के 206 सदस्यों में 41 सदस्य ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। औरों से अलग दल होने का दावा करने वाली भाजपा की स्थिति बहुत चौंकाने वाली है। इस बार भाजपा के टिकट से चुने गए 116 सासदों में से 42 लोग आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं, कांग्रेस से एक अधिक। आपराधिक रिकार्ड वाले व्यक्तियों को लोकसभा में भेजने के मामले में इन दो प्रमुख राजनीतिक दलों के अलावा दूसरे दल भी किसी से पीछे नहीं हैं। सपा के 36 प्रतिशत सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक है। बसपा के टिकट पर जीतने वाले 29 प्रतिशत सदस्यों का रिकार्ड आपराधिक है।
चिंताजनक स्थिति यह है कि वर्तमान लोकसभा के अधिकांश सदस्य या तो करोड़पति हैं या अपराधी वृत्ति वाले हैं। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जिन्होंने अपराध का सहारा लेकर अकूत धन एकत्र किया है अथवा धन का सहारा लेकर अपराध की दुनिया में प्रवेश किया है। इस देश की राजनीति में धन और अपराध की जुगलबंदी आज का कटु यथार्थ बन गई है। इस बार जो चुनाव हुए थे उसमें सभी राजनीतिक दलों ने आम आदमी की बहुत चर्चा की थी। आम आदमी को जीवन की मूलभूत सुविधाएं प्राप्त हों, उसका जीवन स्तर ऊपर उठे, इसके प्रति सभी दलों ने अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की थी, किंतु सभी जानते हैं कि भारत के आम आदमी की स्थिति कैसी है? एक अरब से अधिक की जनसंख्या वाले इस देश में आज भी लगभग 30 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। करोड़ों लोग झुग्गी-झोपडि़यों में रहते हैं। इनके सिर पर ठीक-ठाक छत नहीं है। ऐसे निर्धन देश में सांसद और विधायक यदि करोड़पति हैं तो वे आम लोगों के दु:ख-दर्द के कितने सहभागी बन सकेंगे, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
इस बार चुनाव आयोग ने यह अनिवार्य कर दिया था कि जिस व्यक्ति को चुनाव लड़ना है उसे अपनी चल-अचल संपत्ति को ब्यौरा देना होगा। वे लोग जो दूसरी या तीसरी बार चुनाव के मैदान में थे, उन्होंने 2004 में हुए चुनाव के समय के आंकड़े भी दिए थे। अधिसंख्य उम्मीदवारों की संपत्ति पिछले चुनाव से इस चुनाव तक दोगुनी हो गई थी। क्या आम आदमी की आर्थिक स्थिति में भी इस अवधि में इतनी प्रगति हुई है? एक समय नारा दिया गया था-गरीबी हटाओ। गरीबी तो बहुत थोड़ी हटी, अमीरी जरूर बहुत बढ़ी है। गरीब व्यक्ति जहां का तहां है। आज दाल-रोटी जैसा आम भोजन भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गया है। कैसी विडंबना है? देश के आम लोगों की सभा समझी जाने वाली लोकसभा करोड़पतियों से भरी हुई है और आम आदमी दरिद्रता के बोझ से पिसता जा रहा है।
– डा. महीप सिंह [लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं]
 
1 टिप्पणी

Posted by पर सितम्बर 10, 2009 में आज के नेता

 

देर आमद,दुरुस्त आमद – उप्र में स्मारक और स्थलों के निर्माण पर रोक

देर आमद,दुरुस्त आमद – उप्र में स्मारक और स्थलों के निर्माण पर रोक

उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार को मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट से करारा झटका लगा। स्मारकों और स्थलों के निर्माण में हजारों करोड़ रुपये फिजूलखर्च करने पर राज्य सरकार को फटकार तो सुननी ही पड़ी, साथ ही परियोजनाओं पर चल रहा काम भी रुक गया है। अदालत ने लखनऊ में डा. भीमराव अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल, मान्यवर श्री कांशीराम जी स्मारक स्थल, स्मृति उपवन तथा रामाबाई अंबेडकर मैदान में चल रहे निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है।
न्यायमूर्ति बीएन अग्रवाल व न्यायमूर्ति आफताब आलम की पीठ ने स्मारक और स्थलों पर हजारों करोड़ रुपये खर्च करने को फिजूलखर्ची बताते हुए कहा कि जिस राज्य की विकास दर दो फीसदी हो, वहां इसे कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है। अगर इसी तरह केंद्र सरकार सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों के स्मारक बनाने का निर्णय कर ले और हजारों करोड़ रुपये खर्च करे, तो क्या वह उचित होगा। इस पर राज्य सरकार के वकील सतीश चंद्र मिश्रा ने कहा कि कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्रियों के स्मारक पर खर्च किया है। राजघाट, तीनमूर्ति भवन पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन तब किसी ने कुछ नहीं कहा। एक ही परिवार के पांच लोगों के नाम परियोजनाएं शुरू की गई पर कभी जनहित याचिका दाखिल नहीं हुई। कोर्ट ने सवाल किया-‘अगर केंद्र सरकार सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों या कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों के स्मारक बनवाने लगे तो।’ मिश्रा ने कहा ‘हां बने हैं’। जस्टिस अग्रवाल ने पूछा-‘नरसिंह राव और एचडी देवेगौड़ा का कौन सा स्थल है।’ राज्य सरकार जिस याचिका को राजनैतिक कह रही है उसमें जनहित शामिल है। उनकी राय में याचिका में बड़ा कानूनी प्रश्न है जिस पर कोर्ट विचार कर सकता है। निर्माण लिए विधानसभा से बजट पास होने की मिश्रा की दलील पर कोर्ट ने कहा कि वे बजट भी मंगा कर देख सकते हैं। इस तरह की फिजूलखर्ची पर कोर्ट विचार कर सकता है। इसे कानूनी मुद्दा मानकर ही कोर्ट ने नोटिस जारी किया था। पीठ ने मिश्रा से कहा कि या तो वे सरकार की ओर से भरोसा दिलाएं कि आगे निर्माण जारी नहीं रखा जाएगा वरना कोर्ट रोक लगा देगा। इस पर मिश्रा ने निर्माण जारी नहीं रखने की बात कही। कोर्ट ने उनका बयान दर्ज कर लिया और कहा कि राज्य सरकार की अंडरटेकिंग के बाद अंतरिम आदेश पारित करने की जरूरत नहीं है।
इससे पहले अर्जीकर्ता मिथलेश कुमार सिंह की ओर से पेश अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि कोर्ट ने गत 27 फरवरी को याचिका में लंबित इमारतों को ढहाने पर रोक लगा दी थी। इस आदेश के बाद भी सरकार ढहाई गई जगहों पर जोर-शोर से स्मारकों स्थलों और मूर्तियों का निर्माण कराने में लगी है। ऐसे में याचिका में उठाया गया मुद्दा ही महत्वहीन हो जाएगा। उन्होंने चल रहे निर्माण कार्य पर रोक लगाने का अनुरोध किया। जब राज्य सरकार ने कहा कि सभी परियोजनाओं पर काम पूरा हो चुका है और सिर्फ फिनिशिंग चल रही है, तो कोर्ट ने कहा कि जब इमारतों को 27 फरवरी के आदेश के पहले ही ढहाया जा चुका था तो सरकार ने उसी समय कोर्ट को यह बात क्यों नहीं बताई थी। वे महत्वहीन आदेश क्यों देते। ऐसे तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लंबित सभी मामले महत्वहीन हो चुके हैं। आठ-दस महीने में काम पूरा हो जाने पर आश्चर्य जताते हुए कोर्ट ने कहा कि सरकार के पास इतनी मशीनरी है इसका मतलब है कि रात-दिन काम हुआ है। कोर्ट ने राज्य सरकार को 24 सितंबर तक और अर्जीकर्ता को 27 सितंबर तक प्रतिउत्तर देने की छूट देते हुए अगली सुनवाई 29 सितंबर तय कर दी।
 

फ़िर वही परिवारवाद !!!

कांग्रेस नेतृत्व को आंध्र प्रदेश में अपने विधायकों को जिस तरह यह संदेश देना पड़ा कि वे मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी के चयन के संदर्भ में तब तक धैर्य धारण करें जब तक राजकीय शोक की निर्धारित अवधि समाप्त नहीं हो जाती उससे भारतीय राजनीति का एक स्याह पहलू उजागर हो गया। यह बेहद अरुचिकर है कि राजशेखर रेड्डी का अंतिम संस्कार होने के पहले ही आंध्र प्रदेश के विधायकों के एक समूह ने दिवंगत मुख्यमंत्री के बेटे जगनमोहन रेड्डी को सत्ता की कुर्सी पर बैठाने के लिए लामबंदी शुरू कर दी। कांग्रेस विधायकों की ओर से जगनमोहन के पक्ष में जिस तरह की लामबंदी की गई उससे एक बार फिर यह प्रकट हुआ कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद और सामंतशाही के तत्व कहीं अधिक गहरे विद्यमान हैं। पिता के स्थान पर पुत्र को उसका स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानना तो बीते जमाने की बात है। एक परिपक्व लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक दल को यह शोभा नहीं देता कि वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजसी परंपराओं को आगे बढ़ाता हुआ दिखाई दे। जगनमोहन रेड्डी एक सक्षम राजनेता और योग्य प्रशासक हो सकते हैं, लेकिन यह तो एक तथ्य है ही कि अभी उन्हें अपने इन गुणों को साबित करना शेष है। आंध्र प्रदेश, कांग्रेस और राजनीति के लिए उचित यह होगा कि वाई एस राजशेखर रेड्डी के उत्तराधिकारी का चयन राजनीतिक-प्रशासनिक योग्यता और क्षमता के मानकों के आधार पर किया जाए।

इसमें संदेह नहीं कि आंध्र प्रदेश के ज्यादातर कांग्रेसी विधायक राजशेखर रेड्डी के प्रति निष्ठावान थे, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वे उनके बेटे को उनका स्वाभाविक उत्तराधिकारी करार दें और इसके लिए विधिवत अभियान भी छेड़ दें-वह भी राजकीय शोक की अवधि समाप्त होने के पहले ही। यह अच्छा हुआ कि कांग्रेस नेतृत्व ने इस मामले में हस्तक्षेप किया, अन्यथा सात दिन का राजकीय शोक एक विचित्र माहौल की प्रतीति कराता। देखना यह है कि शोक की अवधि समाप्त होने के बाद आंध्र प्रदेश में उत्तराधिकार के प्रश्न को किस तरह सुलझाया जाता है? यह ठीक है कि कांग्रेस विधायकों का एक बड़ा वर्ग राजशेखर रेड्डी के पुत्र को मुख्यमंत्री बनाने की तरफदारी कर रहा है, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती उन्हें मात्र चंद महीनों का ही राजनीतिक अनुभव है। सांसद होने के अलावा फिलहाल जगनमोहन की एकमात्र राजनीतिक योग्यता उनका राजशेखर रेड्डी का पुत्र होना है। यह समझ आता है कि राजशेखर रेड्डी के निधन के बाद उनके परिवार के प्रति सहानुभूति की लहर उमड़ी है, लेकिन शासन के मामले सहानुभूति के आधार पर नहीं तय किए जाने चाहिए। आखिर ऐसा भी नहीं कि राजशेखर रेड्डी के निधन से जो स्थान रिक्त हुआ है उसे केवल उनके परिजन ही भर सकते हैं। वास्तव में आंध्र प्रदेश में अनेक ऐसे कांग्रेस नेता हैं जिनके पास लंबा राजनीतिक अनुभव भी है और शासन चलाने की योग्यता भी। यह तो कांग्रेस नेतृत्व को ही तय करना है कि वह आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए किसका चयन करता है, लेकिन उसे सहानुभूति लहर के आधार पर फैसला करने से बचना होगा।

 
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Posted by पर सितम्बर 7, 2009 में आज के नेता

 

..महापुरुष-महापुरुष में ज्यादा फर्क नहीं होता

..महापुरुष-महापुरुष में ज्यादा फर्क नहीं होता

उस दिन मंत्री जी को एक महापुरुष की स्मृति में भाषण देना था, लेकिन ऐन वक्त पर उन्हे याद आया कि पी.ए. से भाषण तैयार कराना तो भूल ही गये। समस्या पी.ए. को बताई। पी.ए. ने कहा- ‘कोई बात नहीं सर, हालांकि उन महापुरुष के बारे में जानकारी तो मुझे भी कुछ नहीं है, लेकिन महापुरुष-महापुरुष में ज्यादा फर्क नहीं होता।’ मंत्री जी की कुछ समझ में नहीं आया। पी.ए. बोला, ‘चिंता मत कीजिए, सर, मैं अभी उन महापुरुष के बारे में जोरदार भाषण तैयार कर देता हूं। क्या नाम बताया था आपने उनका! हां, राधेश्याम जी। अभी तैयार हो जायेगा भाषण।’

पी.ए. द्वारा तैयार भाषण जब मंत्री जी ने पढ़ा तो जोरदार तालियों से उसे भरपूर प्रशंसा मिली। भाषण इस प्रकार था- ”भाइयों और बहनों! मुझसे आग्रह किया गया है कि मैं राधेश्याम जी की स्मृति में कुछ कहूं। लेकिन मैं उनके बारे में क्या कह सकता हूं? उनके बारे में कुछ कहना सूरज को दीपक दिखाना है। लेकिन फिर भी मैं कहना चाहूंगा कि ऐसी महान आत्माएं रोज-रोज पैदा नहीं होतीं। उन्होंने अपना सारा जीवन देश-समाज के लिये समर्पित कर दिया। उन्होंने जीवन में पग-पग पर कष्ट सहे, लेकिन अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। सत्य के लिये जिये, सत्य के लिये मरे। उन्होंने कभी अपने सुख-चैन की परवाह नहीं की। जहां किसी की आंख में आंसू दिखे, उनका कोमल हृदय द्रवित हो उठा। वे सबको साथ लेकर चलने वालों में थे लेकिन सिद्धांतों की कीमत पर नहीं। उन्हे सर कटाना मंजूर था, सर झुकाना नहीं। स्वाभिमान उनके अंदर कूट-कूटकर भरा था, वे जमीन से जुड़े आदमी थे। वे किसी इंसान को छोटा नहीं समझते थे। उन्होंने गरीब, बेसहारा, दबे-कुचले लोगों को हमेशा गले से लगाया। वे अहिंसा के पुजारी थे, राष्ट्र के नायक थे, बात के धनी थे, सत्य के पुजारी थे। देश को आज ऐसे ही महापुरुषों की जरूरत है जो उनके दिखाये रास्ते पर चलकर देश और समाज का भला कर सकें। उनके असमय चले जाने से राष्ट्र को अपूर्णनीय क्षति हुई है, जिसकी भरपाई असंभव नहीं तो भी मुश्किल जरूर है। यादें तो बहुत आ रही है, किन्तु समय के अभाव में अपनी बात को यहीं विराम देता हूं। जय हिंद।”

तालियों की गड़गड़ाहट थमने तथा कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उपस्थित पत्रकारों ने मंत्री जी से कुछ सवाल पूछे।

पहला पत्रकार- ‘मंत्री जी, जोरदार भाषण के लिये बधाई! लेकिन आपने कहा कि राधेश्याम जी अहिंसावादी थे, जबकि वे तो क्रांतिकारियों के समर्थक माने जाते थे।’

दूसरा पत्रकार- ‘आपने कहा कि राधेश्याम जी असमय चले गये, जबकि वे तो 75 वर्ष के वृद्ध थे।’

तीसरा पत्रकार- ‘आपने कहा कि राधेश्याम जी सिद्धांतों के पक्के थे लेकिन उन्होंने तो चार बार दलबदल किया।’

चौथा पत्रकार- ‘आपने कहा वे स्वाभिमानी थे, लेकिन वो तो जुगाड़ के बल पर हर सरकार में मंत्री पद हासिल कर लेते थे।’

मंत्री जी थोड़ा सकपकाये और पी.ए. के कान में फुसफुसाए, ‘अरे क्या-क्या बुलवा दिया मुझसे, किस कम्बख्त की स्मृति में यह आयोजन था?’ पी.ए. ने बात सम्हालने का आश्वासन मंत्री जी को दिया और पत्रकारों से बोला, ‘देखिये, मंत्री जी को आवश्यक मीटिंग में जाना है, आप सभी अपने प्रश्न लिखकर दे दीजिये। प्रेस-विज्ञप्ति में सबके उत्तार दे दिये जायेंगे।’

प्रेस-विज्ञप्ति, जिसे खुद पी.ए. ने ही तैयार किया, में दिये गये जवाब इस प्रकार थे-

1. क्रांतिकारियों का समर्थन उनके भावुक हृदय को दर्शाता है लेकिन सिद्धांतत: वे पक्के गांधीवादी थे। वे कभी किसी हिंसक गतिविधि में लिप्त नहीं रहे, जो उनके अहिंसावादी होने का अकाट्य प्रमाण है।

2. वे असमय चले गये, अन्यथा राजनीति में 75 वर्ष की उम्र होती ही क्या है? वे अनुभव का खजाना थे। वे अपने सपने अधूरे छोड़ गये। कुछ समय और जीते तो क्रांति ला सकते थे।

3. उन्होंने दलबदल अवश्य किया लेकिन अपने सिद्धांतों की खातिर। उन्होंने अपने सिद्धांतों को नहीं छोड़ा, बल्कि जिस दल ने अपने सिद्धांत छोड़े, राधेश्याम जी ने ही उन दलों को लात मार दी।

4. वे हर सरकार में मंत्री जुगाड़ से नहीं अपनी योग्यता और प्रतिभा के बल पर बनते थे, क्योंकि कोई भी सरकार उनकी विलक्षण प्रतिभा से वंचित नहीं रहना चाहती थी।

प्रेस-विज्ञप्ति पढ़कर सभी पत्रकार एक-दूसरे का मुंह देखकर पहले मुस्कराये और फिर पूरा माहौल उपहासात्मक खिलखिलाहटों से गूंज उठा।

 
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Posted by पर सितम्बर 7, 2009 में आज के नेता